नपुंसक और दोषयुक्त(बिगड़ी)संतान कब पैदा होती है(गर्भ उपनिषद)

हर हर महादेव प्रिय पाठकों, 

कैसे है आप लोग, आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे 

नपुंसक और दोषयुक्त (बिगड़ी) संतान कब पैदा होती है(गर्भ उपनिषद)

नपुंसक और दोषयुक्त(बिगड़ी)संतान कब पैदा होती है(गर्भ उपनिषद)


गर्भ उपनिषद् या गर्भोपनिषद किसे कहते है?

दोस्तो! हमारे धर्म शास्त्रों में 108 उपनिषद है। उन्हीं ग्रंथों मे से एक है गर्भ उपनिषद्इस उपनिषद के लेखक का नाम है पिप्पलाद मुनि।कहने के लिय तो य़ह उपनिषद बहुत छोटा है पर है बहुत ही महत्वपूर्ण। 

गर्भ उपनिषद में एक भ्रूण (बच्चे) के गर्भ मे आने से लेकर, उसके जन्म लेने तक की सारी स्थितियों की जानकारी दी गई है। इसके अलावा बच्चे के शरीर मे रस, धातुओं, वात पित्त तथा कफ के संतुलन के बारे मे बड़ी ही सरलता से बताया गया है। 

आपकी जानकारी के लिए बता दे दोस्तों!- कि जिस समय पिप्पलाद मुनि ने गर्भ उपनिषद की रचना की थी ,उस समय उनके पास कोई आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं थी । 

जैसे आज के समय मे पेट के अंदर की हर परिस्थिति को झाँक कर देखा जा सकता है वैसे उस समय नहीं देखा सकता था। आज हम गर्भ की परिस्थिति को अपनी आंखों से अल्ट्रासाउंड ,यू ट्यूब आदि के माध्यम से पेट के अंदर की प्रक्रिया को स्पष्ट देख सकते हैं। समझ सकते हैं। 

ये आश्चर्य की बात है कि सदियों पहले ऐसे उपकरण नही थे, फिर भी पिप्पलाद मुनि ने गर्भ की सच्चाई को इतने स्पष्ट तरीके से बताया  की आज भविष्य मे वो सही साबित हो रही है।

आज इस पोस्ट मे हम गर्भ उपनिषद ग्रंथ में से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न लेकर आए हैं। तो चलिए बिना देरी किए पढ़ते हैं आज की पोस्ट 

सबसे पहले हम जानते है कि शरीर किससे बना है?

छिति जल पावक गगन समीरा । 

पंचतत्व रचित अधम शरीरा ।।

यानी के दोस्तों! पंचभूतों से निर्मित है यह शरीर

1. पृथ्वी

2. जल

3. अग्नि

4. आकाश और 

5. वायु से मिलकर बना है। 

पंचतत्व क्या हैं?

1. पृथ्वी- जो कुछ भी ठोस है।

2. जल- जो कुछ भी तरल है।

3. अग्नि- शरीर की गर्मी।

4. वायु- शरीर की और उसके भीतर की सभी हलचलें ।

5. आकाश- वह स्थान जिसमें शरीर स्थित है और शरीर के अंदर की गुहाएं और नलियां ।

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इन पंचभूतों की भूमिकाएं क्या हैं?

1. पृथ्वी, वस्तुओं के लिए आधार बनना।

2. जल, जोडना (जैसे सूखी मिट्टी के कण जब पानी में मिल जाते हैं तो आपस में चिपक जाते हैं) ।

3. अग्नि, वस्तुओं को दृश्यमान बनाती है।

4. वायु, गति का कारण बनता है।

5. आकाश, स्थान देता है।

पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां ( दस इंद्रियां)

पांच ज्ञानेंद्रियां

1. आंखें देखने के लिए।

2. कान सुनने के लिए।

3. जीभ स्वाद जानने के लिए।

4. नाक सूंघने के लिए

5. त्वचा स्पर्श महसूस करने के लिए ।

पांच कर्मेन्द्रियां

1. मुँह बोलने के लिए।

2. हाथ पकड़ने और उठाने के लिए।

3. पैर चलने के लिए।

4. गुदा मलत्याग के लिए।

5. जननांग संतानोत्पत्ति के लिए।

चार अंतरिक अंग या इंद्रियां या अंतःकरण!

1. बुद्धि समझने और निर्धारित करने के लिए।

2. मन सोचने और कल्पना करने के लिए।

3. चित्त स्मरण के लिए।

4. अहंकार- मैं और मेरा ऐसी धारणा रखने के लिए।

पिप्पलाद मुनि के बताए छः रस!

ये केवल स्वाद नहीं हैं।

1. मीठा

2. खट्टा

3. नमकीन 

4. कड़वा

5. तीखा

6. कसैला

ये केवल स्वाद नहीं हैं। शरीर की कार्यप्रणाली इन्हीं पर निर्भर करती है।

उदाहरण के लिए, शरीर में अधिक मिठास से मधुमेह होता है।

बहुत अधिक तीखापन छालों का कारण बन सकता है।

शरीर का पीएच मान 7.35 - 7.45 के बीच होना चाहिए जो काफी हद तक आंवला रस पर निर्भर करता है।

इसी के कारण शरीर को षडाश्रय या छः पर आश्रित कहा गया है।

शरीर की अवस्था के छः परिवर्तन और शरीर के छः चक्र !

1. कोख में आविर्भाव- मूलाधार

2. जन्म- स्वाधिष्ठान

3. वृद्धि- मणिपुर

4. परिपक्व हो जाना- अनाहत

5. क्षय- विशुद्धि

6. मरण- आज्ञा

ये चक्र शरीर के अंदर प्राण की गतिविधियों के केंद्र हैं। 

ध्वनि के सात प्रकार गर्भोपनिषद्

1. षडज - सा

2. ऋषभ - रे

3. गांधार - ग

4. मध्यम - म

5. पंचम प

6. थैवत - ध

7. निषाद - नि

शरीर की धातुओं के रंग और वे बनते कैसे हैं?

1. रस - सफेद- भोजन के सार से रक्त बनता है।

2. खून - लाल- रक्त से मांस बनता है।

3. मांस - कृष्ण- मांस से वसा बनता है।

4. वसा - धूम्र- वसा से अस्थि बनतीं है।

5. हड्डी - पीला- अस्थि से मज्जा ।

6. मज्जा - भूरा-मज्जा से वीर्य ।

7. वीर्य - पीला सा सफेद

भ्रूण का बनना और विकास के विभिन्न चरण!

नपुंसक और दोषयुक्त(बिगड़ी)संतान कब पैदा होती है(गर्भ उपनिषद)


पुरुष का शुक्र स्त्री के शोणित के साथ मिलकर भ्रूण बनाता है।

1. पहली रात में भूण तरल होता है।

2. सात दिनों में यह बुलबुले जैसा हो जाता है।

3. पंद्रह दिनों में यह गोल बन जाता है।

4. एक महीने में यह दृढ हो जाता है।

5. दो महीने में सिर बन जाता है।

6. तीन महीने में पैर बन जाते हैं।

7. चौथे महीने में पेट और टखनों का निर्माण होता है।

8 पांचवें महीने में मेरुदंड और पीठ का निर्माण होता है। 

9. छठे महीने में चेहरा, नाक, आंख और कान बनते हैं।

10. सातवें महीने में जीवात्मा शरीर में प्रवेश करती है।

11. आठवें महीने तक सभी अंग पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं।

बच्चे का लिंग निर्धारण !

यदि वीर्य अधिक शक्तिशाली हो तो लडके का जन्म होगायदि शोणित अधिक शक्ति- शाली हो तो लडकी का जन्म होगाऔर यदि दोनों समान हो तो नपुंसक का जन्म होगा।

ध्यान दीजिए दोस्तों !

नपुंसक केवल एक लिंग है, दोष नहीं

संस्कृत भाषा में तीन लिंग की व्यवस्था है!

दोषयुक्त(बिगड़ी)संतान कैसे पैदा होती है?

यदि मैथुन के समय माता-पिता को कोई चिंता या तनाव है तो दोषयुक्त बच्चे का जन्म होता है।

इसके अलावा यदि ग्रहण के समय मैथुन किया जाए तो भी दोष पूर्ण सन्तान पैदा होती हैं। 

बच्चे का स्वभाव किस बात पर निर्भर करता है?

यदि मैथुन सुखद और आनंदमय है तो बच्चे को पिता और माता के सभी अच्छे गुण मिल जाएंगे।

मैथुन का स्थान, समय, क्रिया और आनंद बच्चे के स्वभाव को प्रभावित करते हैं।

दोस्तो! पुराणों में भी ये जिक्र आता है कि जब एक बार कश्यप मुनि जी की पत्नी ने अपने साथ रति करने के लिए उन्हें कहा तो,उन्होंने माना कर दिया। उन्होंने कहा कि रति के लिए अभी ये समय ठीक नहीं ।लेकिन उनकी धर्मपत्नी नहीं मानी तब कश्यप मुनि ने न चाहते हुए भी रति क्रिया की ,जिस कारण एक धनिष्ठ मुनि होने के बावजूद भी उनके घर राक्षस प्रवर्ती का दुष्ट पुत्र हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ।

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जुडवां बच्चे का जन्म कैसे होता है?

शुक्र या शोणित के विभाजन से जुड़वा बच्चों का जन्म होता है। यदि शुक्र और शोणित में से केवल एक ही विभाजित होता है, तो जुड़वा बच्चों का लिंग समान होगा यदि दोनों विभाजित हो जाते हैं, तो असमान लिंग के जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं यदि शुक्र या शोणित दो से अधिक में विभाजित हो जाते हैं, तो उसके अनुसार दो से अधिक संख्या मे बच्चे पैदा होते हैं 

नौवें महीने में भ्रूण(बच्चे) के साथ क्या होता है?

पंचतत्वों से बना शरीर पूर्ण रूप से विकसित होता है। संवेदी अंग तैयार हो जाते हैं। इस अवस्था में भ्रूण में गहरी बुद्धि होती है। वह अनादि और अनंत ओंकार का स्मरण करता है। शरीर में आठों प्राकृक्तियां सक्रिय हो जाती हैं।

मूलप्रकृति, महत. अहंकार और पंचभूत शरीर में सोलह विकार सक्रिय हो जाते हैं। वह इस प्रकार है 

पांच ज्ञानेंद्रिया,

पांच कर्मद्रियां,

पांच प्राण

ओर अंतःकरण ।

मां के रक्त के माध्यम से गर्भनाल द्वारा प्राण पूरी तरह से भ्रूण में प्रवेश कर जाता है।

तब वह पिछले जन्मों को याद करता है तथा किए गए और अपूर्ण रह गए कार्यों को भी याद करता है।

वह किए गए सही और गलत के बीच विवेचन करता है।

तब भ्रूण (बच्चा) सोचता है

मैंने हजारों कोख देखे हैं।

मैंने हजारों स्तनों का पान किया है।

मैंने हजारों अलग-अलग खाद्य पदार्थों का स्वाद चखा है।

मैंने दुनिया भर के स्थानों पर जन्म लिया है।

मैं दुनिया भर में कई जगहों पर मर चुका हूं।

मैं 84 लाख विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहा हूं।

मैं पुनर्जन्म के इस शाश्वत चक्र में फसा हूँ।

जन्म-मरण, जन्म-मरण, जन्म-मरण होते ही रहते हैं..

कोख के भीतर दुख है।

हर जन्म भ्रम और दुःख से भरा है।

बाल्यावस्था में दूसरों पर निर्भरता, अज्ञान, दुःख, हितकारी काम न करना और हानिकारक काम करना ये सब होता है।

वयस्कता के दौरान, विषय सुखों से लगाव होता है,

और तीन प्रकार के कष्ट होते हैं बाहरी वस्तुओं और प्राणियों के कारण, आत्म प्रवृत्त होने के कारण, और अलौकिक शक्तियों के कारण। वृद्धावस्था में अधूरी इच्छाएं, मृत्यु का भय, चिंता, स्वतंत्रता का अभाव और क्रोध होता है।

जन्म लेना ही इन सबका आरंभ है।

मैं पुनर्जन्म के चक्र से बाहर नहीं आ पाया हूं।

मैंने ज्ञान और योग का शिक्षण प्राप्त नहीं किया है।

मैं इस दुख के सागर में डूब गया हूं।

मुझे नहीं पता कि इससे कैसे बाहर निकलूं। मेरे अज्ञान पर धिक्कार है।

राग के कारण होने वाली परेशानियों पर धिक्कार है!

द्वेष से उत्पन्न परेशानियों पर धिक्कार है !

इस सांसारिक जीवन पर धिक्कार है।

मैं पुरु से ज्ञान प्राप्त करूंगा।

मैं सांख्ययोग का अभ्यास करूंगा।

वह मुझे सभी बंधनों से मुक्त कर देगा।

इससे मेरी सारी परेशानी समाप्त हो जाएगी।

जब मैं गर्भ से बाहर आऊंगा, तो में महेश्वर की शरण लूंगा।

वे मुझे जीवन के चार लक्ष्यों: धर्म, अर्थ, कामऔर मोक्ष को प्राप्त करने के साधन देंगे।

मैं जगत के स्वामी चिदात्मा की शरण में जाऊँगा।

वे सभी शक्तियों के मूल स्रोत हैं।

जो कुछ भी होता है उसके पीछे वे हैं।

जब मैं गर्भ से बाहर आ जाऊँगा तो में भार्ग की शरण में जाऊँगा।

वे जगत के प्रकाश हैं।

वे जीवित और निर्जीव सभी प्राणियों के स्वामी हैं।

वे रुद्र, महादेव और जगद्‌गुरु हैं।

जब मैं गर्भ से बाहर आ जाऊँगा तो मैं तपस्या करूँगा।

जब में गर्भ से बाहर आऊंगा, तो मैं विष्णु की पूजा करूंगा।

वें आनंद का अमृत प्रदान करते हैं।

वे च्युति से रहित नारायण हैं।

अब मैं इस गर्भ में फंस गया हूं।

जब में गर्भ से बाहर आऊंगा, तो में महान वासुदेव पर ध्यान केंद्रित करूंगा।

मैं अपना मन उनसे कभी नहीं हटाऊंगा।

जो मेरे पिछले कर्मों से लाभान्वित हुए हैं वे सब गायब हो गए हैं।

केवल मुझे अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए छोड़ दिया गया है।

मैं एक अविश्वासी रहा हूँ।

मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे अपने कर्मों का परिणाम अकेले ही भुगतना पड़ेगा।

अब, मुझे पता है कि यह सच है।

भ्रूण की जीवात्मा ऐसे ही चिंतन करता रहता है। वह अपनी इच्छाओं, अज्ञान और सांसारिक कार्यों से घृणित हो जाता है।

जन्म के समय क्या होता है?

इस अवस्था में भ्रूण कोख के मुख में आना चाहता है। वहाँ उसे बहुत कष्ट होता है। वह बाहर होता है जब उसे कोख के गले से निकलना पड़ता है। उसे प्रसूति वायु पीड़ा देती है। जैसे ही बच्चा बाहर आता है वह वैष्णवी वायु के संपर्क में आता है। 

वैष्णवी वायु पिछले जन्मों की सभी यादों को मिटा देता है। वह अपनी दूरदर्शिता खो देता है। वह सच को देखने की क्षमता खो देता है। जैसे ही वह पृथ्वी के संपर्क में आता है,बच्चा रोने के लिए तैयार हो जाता है। पहले रोने के आंसू बाकी यादों को धो देते हैं।सही और गलत में भेद करने की उसकी क्षमता समाप्त हो जाती है।

शरीर के त्रिदोष और अग्नि का विवरण

शरीर में वात, पित्त और कफ संतुलित अवस्था में होना चाहिए। अन्यथा, वे रोग उत्पन्न करते हैं।

पित्त ही शरीर की अग्नि है। पित्त सही मात्रा में होने पर ही कोई सही ढंग से सोच पाएगा। पित्त अधिक होने पर मानसिक बीमारियां होती हैं।

शरीर में अग्नि तीन प्रकार की होती है।

ज्ञानाग्नि- मन और बुद्धि की प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार ऊर्जा।

दर्शनाग्नि- ऊर्जा जो संवेदी अंगों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करती है।

कोष्ठाग्नि- ऊर्जा जो भोजन को पचाती है।

मानव शरीर की संरचना 

खोपड़ी 4 हड्डियों से बनी होती है। प्रत्येक पंक्ति में 16 दांत होते हैं।107 मर्म हैं, 72 नाड़ियाँ हैं। उनमें से तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। 

भोजन रस, मूत्र और मल में परिवर्तित हो जाता है। 

वीर्य और शोणित का निर्माण भोजन से होता है। 

रक्त परिसंचरण सहित शरीर के अंदर सभी गतिविधियां वात (वायु) की सहायता से होती हैं।

प्रारंभ में, भ्रूण का प्राण आज्ञा चक्र पर होता है। जब वह प्रसव के लिए तैयार हो जाता है तब यह अनाहत चक्र में उतरकर स्थिर हो जाता है।

साढ़े चार करोड बाल हैं।

दिल का वजन आठ पल(192 ग्राम )होता है।

जीभ का वजन बारह पल(96 ग्राम )होता है।

शरीर में पित्त का वजन एक प्रस्थ(768 ग्राम)होता है।

कफ का वजन एक आढक(3 किलो 73 ग्राम)होता है।

मज्जा का वजन दो प्रस्थ(1536 ग्राम)होता है।

वीर्य का वजन एक कुडव(192 ग्राम)होता है।

प्रिय पाठकों आशा करते हैं कि आपको कहानियां पसंद आई होंगी। ऐसी ही रोचक, ज्ञानवर्धक और सही जानकारी के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यबाद 

जय श्री सीता राम 


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