गर्भस्थ शिशु पर माता के जीवन का गम्भीर प्रभाव पड़ता है
भक्तश्रेष्ठ प्रह्लाद जी को दैत्यराज हिरण्यकशिपु भगवान् के स्मरण- भजन से विरत करना चाहता था। उसकी धारण थी कि 'प्रह्लाद अभी बालक है, उसे किसी ने बहका दिया है। ठीक ढंग से शिक्षा मिलने पर उसके विचार बदल जायेंगे।' इस धारणा के कारण दैत्य राज ने प्रह्लाद को शुक्राचार्य के पुत्रषण्ड तथा अमर्क के आश्रम में पढ़ने के लिय भेज दिया था और उन दोनों आचार्यों को आदेश दे दिया था कि वे सावधानीपूर्वक उसके बालक को दैत्योचित अर्थनीति, दण्डनीति, राजनीति आदि की शिक्षा दें।
आचार्य जो कुछ पढ़ाते थे, उसे प्रह्लाद पढ़ लेते थे, स्मरण कर लेते थे, किन्तु उनमें उनका मन नहीं लगता था। उस शिक्षा के प्रति उनकी महत्त्व बुद्धि नहीं थी। जब दोनों आचार्य आश्रम के काम में लग जाते, तब प्रह्लाद दूसरे सहपाठी दैत्य-बालकों को अपने पास बुला लेते। एक तो वे राजकुमार थे, दूसरे उन्हें मारने के दैत्यराज के अनेक प्रयत्न व्यर्थ हो चुके थे, इससे सब दैत्य-बालक उनका बहुत सम्मान करते थे। प्रह्लाद के बलाने पर वे खेलना छोड़कर उनके पास आ जाते और ध्यान से उनकी बातें सुनते। प्रह्लाद उन्हें संयम सदाचार, जीवदया का महत्त्व बतलाते, सांसारिक भोगों की निस्सारता समझाकर भगवान् के भजन की महिमा सुनाते। बालको को यह सब सुनकर बड़ा आश्चर्य होता ।
यह भी पढ़े -सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई?सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ से हुई ?
दैत्य-बालकों ने पूछा-'प्रह्लादजी ! तुम्हारी अवस्था छोटी है। तुम भी हम लोगों के साथ ही राजभवन में रहे हो और इन आचार्यों के पास पढ़ने आए हो। तुम्हें ये सब बातें कैसे ज्ञात हुई ?' प्रह्लाद जी ने बतलाया – 'भाइयो ! इसके पीछे भी एक इतिहास है। मेरे चाचा हिरण्याक्ष की मृत्यु के पश्चात् मेरे पिता ने अपने को अमरप्राय बनाने के लिए तपस्या करने का निश्चय किया और वे मन्दराचल पर चले गये। उनकी अनुपस्थिति में देवताओं ने दैत्यपुरी पर आक्रमण कर दिया । दैत्य अपने नायक के अभाव में पराजित हो गये और अपने स्त्री-पुत्रादि को छोड़कर प्राण बचाकर इधर-उधर भाग गए।
देवताओं ने दैत्यों के सूने घरों को लूट लिया और उनमें आग लगा दी। लूट-पाट के अन्त में देवराज इन्द्र मेरी माता कयाधू को बन्दिनी बनाकर अमरावती ले चले। मार्ग में ही देवर्षि नारद मिले। उन्होंने देवराज को डाँटा-'इन्द्र! तुम इस परायी साध्वी नारी को क्यों पकड़े लिये जाते हो? इसे तुरन्त छोड़ दो।' इन्द्र ने कहा- 'देवर्षि ! इसके पेट में दैत्यराज का बालक है। हम दैत्यों का वंश नष्ट कर देना चाहते हैं। इसका पुत्र उत्पन्न हो जाय तो उसे मैं मार डालूँगा और तब इसे छोड़ दूँगा ।'
यह भी पढ़े मानव शरीर में आत्मा या प्राणशक्ति कैसे प्रवेश करती है ?
नारदजी ने बताया—'भूलते हो, देवराज! इसके गर्भ में भगवान् का महान् भक्त है। तुम्हारी शक्ति नहीं कि तुम उसका कुछ भी बिगाड़ सको।'देवराज का भाव तत्काल बदल गया। वे हाथ जोड़कर बोले–‘देवर्षि क्षमा करें! मुझे पता नहीं था कि इसके गर्भ में कोई भगवद् भक्त है।' इन्द्र ने मेरी माता की परिक्रमा की। गर्भस्थ शिशु के प्रति मस्तक झुकाया और मेरी माता को छोड़कर चले गये।
नारदजी ने मेरी माता से कहा- 'बेटी! मेरे आश्रम मे चलो और जब तक तुम्हारे पतिदेव तपस्या से निवृत्त होकर न लौटें, तब तक वहीं सुखपूर्वक रहो।' देविर्षि तो आश्रम में दिन में एक बार आते थे, किन्तु मेरी माता को वहाँ कोई कष्ट नहीं था। वह आश्रम के अन्य ऋषियों की सेवा करती थी। देवर्षि नारद जी उसे भगवद् भक्ति का उपदेश दिया करते थे। देवर्षि का लक्ष्य मुझे उपदेश करना था। माता के गर्भ में ही वे दिव्य उपदेश मैंने सुने।
बहुत दिन बीत जाने के कारण और स्त्री होने से घर के कामों में उलझने के कारण माता को तो वे उपदेश भूल गये; किन्तु देवर्षि की कृपा से मुझे उनके उपदेश स्मरण (याद ) हैं।
गर्भावस्था में क्या पढ़े -
गर्भवस्था में माता को चाहिए की वो धार्मिक किताबो को पढ़े जैसे -रामायण ,शिव पुराण ,भगवान् की कथाएं आदि। पढ़े। क्योकि बच्चे को पहली सीख (शिक्षा ) गर्भ से ही मिलती है। गर्भावस्था के दौरान जैसे माँ के विचार ,आचरण होंगे वैसे ही आचारण और विचार बच्चे के होंगे।
यह भी पढ़े -बच्चा गर्भ में क्या सोचता है।
गर्भावस्था में क्या न करें -