दीर्घायुष्य एवं मोक्ष के लिए भगवान् शंकर की आराधना

लोमशबी ने कहा- राजन! में पूर्वकाल में एक दरिद्र शूद्र था। एक दिन दोपहर के समय जल के भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिंग देखा। भूख से प्राण सूखे जा रहे थे। उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमल के सुन्दर फूलों से उस शिवलिंग का पूजन किया और पुनः मैं आगे चल दिया। 

भूखा होने के कारण मार्ग में ही मेरी मृत्यु हो गयी। दूसरे जन्म में मैं ब्राह्मण के घर में उत्पन्न हुआ। शिव पूजा के फलस्वरूप मुझे पूर्व जन्म की बातों का स्मरण रहने लगा। मैंने जान- बूझकर मौन धारण कर लिया..........

जय श्री राम प्रिय पाठकों! कैसे है आप लोग
आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे। 

दीर्घायुष्य एवं मोक्ष के लिए भगवान् शंकर की आराधना

दीर्घायुष्य एवं मोक्ष के लिए भगवान् शंकर की आराधना

प्राचीन काल में एक राजा था, जिनका नाम था इन्द्रद्युम्न। वे बड़े दानी,धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे। धनार्थियों को वे हज़ारों स्वर्ण मुद्राओं से कम दान नहीं देते थे। उनके राज्य में सभी एकादशी के दिन उपवास करते थे। 

गगन की रेत, वर्षा की धारा और आकाश के तारे कदाचित् गिने जा सकते हैं, पर इन्द्रद्युम्न के पुण्यों की गणना नहीं हो सकती। इन पुण्यों के प्रताप से वे सशरीर (जीवित अवस्था) ब्रह्मलोक चले गये। 

सौ कल्प बीत जाने पर ब्रह्माजी ने उनसे कहा- 'राजन् । स्वर्ग साधन में केवल पुण्य ही कारण नहीं है, ब्लकि तीनों लोकों की कीर्ति को बेदाग,उज्जवल और बढ़ाना भी होता है। इधर चिरकाल से तुम्हारा यश क्षीण (कम) हो रहा है उसे उज्जवल करने के लिए तुम धरती पर जाओ।' 

ब्रह्माजी के ये शब्द समाप्त भी न हो पाये थे कि राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने को पृथ्वी पर पाया। वे अपने निवास स्थल काम्पिल्य नगर में गये और वहाँ के निवासियों से अपने सम्बन्ध में पूछताछ करने लगे। 

तब निवासियों ने कहा- 'हम लोग तो उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते, आप किसी लंबी आयु वाले बुढ़े व्यक्ति से पूछ सकते हैं। हमने सुना हैं कि नैमिषारण्य में कल्प के अंत तक जीवित रहने वाले मार्कण्डेय मुनि रहते हैं, कृपया आप उन्हीं से इस प्राचीन बात का पता लगाइये।'अब राजा मार्कण्डेय जी के पहुँचें। 

श्रीमद भगवद-गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य। जब एक भूत गया बैकुंठ 

राजा ने मार्कण्डेयजी से प्रणाम करके पूछा कि 'मुने ! क्या आप इन्द्रद्युम्न राजा को जानते हैं?'

तब मार्कण्डेयजी ने कहा, 'नहीं, मैं तो नहीं जानता, पर मेरा मित्र नाड़ीजंघवक (बक पक्षी) शायद इसे जानता हो, इसलिए चलो, उससे पूछा जाए।' जब वह नाड़ीजंघवक के पास पहुंचे तो उसने अपनी बड़ी विस्तृत कथा सुनायी और साथ ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपने से भी अति दीर्घायु उल्लू के पास चलने की सलाह दी। 

जब वह उल्लू के पास पहुंचे तो उल्लू ने भी मना कर दिया। इसी प्रकार सभी ने अपने को असमर्थ बतलाते हुए चिरायु गृध्रराज और मानसरोवर में रहने वाले कच्छप मन्थर के पास  जाने के लिए कहा। 

जब वह चिरायु गृध्रराज और कच्छप मन्थर के पास पहुँचे। तो कच्छप मन्थर ने इन्द्रद्युम्न को देखते ही पहचान लिया और कहा कि 'आप लोगों में जो यह पाँचवाँ राजा इन्द्रद्युम्न है, इसे देखकर मुझे बड़ा भय लगता है, क्योंकि इसी के यज्ञ में मेरी पीठ पृथ्वी की गर्मी से जल गयी थी।' 

अब राजा की कीर्ति तो प्रतिष्ठित हो गयी, पर उसने नश्वर होकर स्वर्ग में जाना ठीक न समझा और मोक्ष साधन की जिज्ञासा की। इसलिए कच्छप मन्थर ने राजा को लोमशजी के पास चलने की सलाह दी।। 

लोमशजी के पास पहुँचकर यथाविधि प्रणाम करने के बाद मन्थर ने निवेदन किया इन्द्रद्युम्न कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।

महर्षि लोमश की आज्ञा लेने के बाद इन्द्रद्युम्न ने कहा-'महाराज! मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि आप कभी कुटिया न बनाकर सर्दी, गर्मी तथा बारीश से बचने के लिये केवल एक मुट्ठी घास ही क्यों लिये रहते हैं ?' 

मुनि ने कहा, 'राजन्। एक दिन मरना अवश्य है, फिर शरीर का निश्चित नाश जानते हुए भी हम घर किसके लिये बनायें ? यौवन, धन तथा जीवन-ये सभी चले जाने वाले हैं। ऐसी दशा में 'दान' हो सर्वोत्तम भवन है।' 

इन्द्रद्युम्न ने पूछा, 'मुने। यह आयु आपको दान के परिणाम में मिली है अथवा तपस्या के प्रभाव से, मैं यह जानना चाहता हूँ।' 

लोमशबी ने कहा- राजन! में पूर्वकाल में एक दरिद्र शूद्र था। एक दिन दोपहर के समय जल के भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिंग देखा। भूख से प्राण सूखे जा रहे थे। उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमल के सुन्दर फूलों से उस शिवलिंग का पूजन किया और पुनः मैं आगे चल दिया। 

भूखा होने के कारण मार्ग में ही मेरी मृत्यु हो गयी। दूसरे जन्म में मैं ब्राह्मण के घर में उत्पन्न हुआ। शिव पूजा के फलस्वरूप मुझे पूर्व जन्म की बातों का स्मरण रहने लगा। मैंने जान- बूझकर मौन धारण कर लिया। 

भगवान और भक्त की सच्ची कहानी

पितादि की मृत्यु हो जाने पर सम्बन्धियों ने मुझे पूरा गूँगा जानकर हमेशा के लिए मेरा त्याग कर दिया। अब मैं रात-दिन भगवान् शंकर की आराधना करने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। प्रभु चन्द्रशेखर ने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और मुझे इतनी दीर्घ आयु दी।'

यह जानकर इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध और उलूक ने भी लोमशजी से शिव दीक्षा ली और तप करके मोक्ष प्राप्त किया।

तो मित्रों! देखा आपने किस प्रकार इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध और उलूक ने शिव आराधना कर मोक्ष प्राप्त किया। ठीक इसी प्रकार हम मनुष्यों को भी चाहिए कि वह अपनी लंबी आयु और मोक्ष के लिए भगवान शिव की आराधना करें। जिससे कभी दोबारा इस नश्वर, निर्दयी संसार मे न आना पड़े। 

तो प्रिय पाठकों, कैसी लगी आपको कहानी। आशा करते हैं अच्छी लगी होगी।अपनी राय अवश्य प्रकट करें। इसी के साथ विदा लेते हैं। ऐसी ही रोचक और सत्य कथाओं के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखें, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

जय श्री राधे कृष्ण 

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