विश्वास है तो भगवान पास है

 हर हर महादेव प्रिय पाठकों!कैसे है आप लोग, 

हम आशा करते हैं कि आप सकुशल होंगें 

आज की कहानी विश्वास पर आधारित है। इस कहानी मे बताया गया है कि विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं, मन मे यदि अटूट विश्वास हो तो किसी को भी अपने वश मे किया जा सकता है। 

जैसे शबरी ने अपने अटूट विश्वास से श्री राम को आने पर विवश कर दिया,हरिदास ने श्री कृष्ण को आने पर मजबूर कर दिया आदि ऐसे बहुत से उदाहरण है। तो चलिये दोस्तों बिना देरी किय पढ़ते हैं आज की पोस्ट। 

विश्वास है तो भगवान पास है 

विश्वास है तो भगवान पास है

दुर्योधन से जुए में अपना सबकुछ हारकर पाण्डव द्रौपदी के साथ काम्यक वन में रहने लगे। परन्तु दुर्योधन के मन  को शान्ति नहीं थी। पाण्डवों को कैसे पूरी तरह नष्ट कर दिया जाय, वह हमेशा इसी चिन्ता में रहता था। 

संयोगवश एक दिन महर्षि दुर्वासा उसके यहाँ पधारे और कुछ दिन वहीँ रहे। अपनी सेवा से दुर्योधन ने उन्हें सन्तुष्ट कर लिया। जाते समय महर्षि ने उससे वरदान माँगने को कहा।

दुर्योधन नम्रता से बोला- 'महर्षि ! पाण्डव हमारे बड़े भाई हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं चाहता हूँ कि जैसे आपने अपनी सेवा का अवसर देकर मुझे कृतार्थ किया है, वैसे ही मेरे उन बड़े भाइयों को भी कम- से-कम एक दिन अपनी सेवा का अवसर दें। 

परन्तु मेरी इच्छा है कि आप उनके यहाँ अपने समस्त शिष्यों के साथ आतिथ्य-ग्रहण करें और आप वहाँ उस वक्त पधारें जब महारानी द्रौपदी भोजन कर चुकी हों, जिससे मेरे भाइयों को देर तक भूखा न रहना पड़े।'

बात यह थी कि पाण्डव जब वन में गये, तब उनके प्रेम से विवश बहुत से ब्राह्मण भी उनके साथ-साथ गये। किसी प्रकार वे लोग लौटे नहीं। इतने सब लोगों के भोजन की व्यवस्था वन में होनी कठिन थी। इसलिये धर्मराज युधिष्ठिर ने तपस्या तथा स्तुति करके सूर्य नारायण को प्रसन्न किया। 

सूर्य देव ने युधिष्ठिर को एक बर्तन देकर कहा- 'इसमें वन के कन्द-शाक आदि लाकर भोजन बनाने से वह भोजन अक्षय हो जाएगा। उससे सहस्त्रों व्यक्तियों की तब तक भोजन दिया जा सकेगा, जब तक द्रौपदी भोजन न कर लें। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस दिन पात्र में कुछ नहीं बचेगा।'

दुर्योधन इस बात को जानता था। इसी से उसने दुर्वासाजी से द्रौपदी के भोजन कर चुकने पर पाण्डवों के यहाँ जाने की प्रार्थना की। दुर्वासा मुनि ने उसकी बात स्वीकार कर ली और वहाँ से चले गये। 

अब तो दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ। यह समझकर कि पाण्डव इन्हें भोजन नहीं दे सकेंगे और महाक्रोधी मुनि अवश्य ही शाप देकर उन्हें नष्ट कर देंगे। बुरी नीयत का यह प्रत्यक्ष नमूना है।

महर्षि दुर्वासा तो दुर्योधन को वचन ही दे चुके थे। वे अपने दस सहस्र शिष्यों की भीड़ लिये एक दिन दोपहर के बाद काम्यक वन में पाण्डवों के पास पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों ने उठकर महर्षि को साष्टांग प्रणाम किया और उनसे आसन पर बैठने की प्रार्थना की।

महर्षि बोले- 'राजन् ! आपका मंगल हो। हम सब भूखे हैं और अभी मध्याह्न-संध्या भी हमने नहीं की है। आप हमारे भोजन की व्यवस्था करें। हम पास के सरोवर में स्नान करके, संध्या-वन्दन से निवृत्त होकर शीघ्र आते हैं।'

धर्मराज ने हाथ जोड़कर नम्रता से कह दिया- अवश्य गुरुदेव ! आप संध्यादि से निवृत होकर शीघ्र पधारें।' पर जब दुर्वासाजी शिष्यों के साथ चले गये तब चिन्ता से युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों का मुख सूख गया। 

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उन्होंने द्रौपदीजी को बुलाकार पूछा तो पता लगा कि वे भोजन कर चुकी है। महाक्रोधी दुर्वासाजी भोजन न मिलने पर अवश्य शाप देकर भस्म कर देंगे- यह निश्चित था और उन्हें भोजन दिया जा सके, इसका कोई भी उपाय नहीं था। 

अपने पतियों को चिन्तित देखकर द्रौपदीजी ने कहा- 'आप लोग चिनता क्यों करते हैं ? श्यामसुन्दर सारी व्यवस्था कर देंगे।'

धर्मराज बोले- 'श्रीकृष्णचन्द्र यहाँ होते तो चिन्ता की कोई बात नहीं थी, किंतु अभी तो वे हम लोगों से मिलकर अपने परिजनों के साथ द्वारका गये हैं। उनका रथ तो अभी द्वारका पहुँचा भी नहीं होगा।'

द्रौपदीजी ने दृढ़ विश्वास से कहा- 'वे कहाँ आते-जाते हैं? ऐस कौन-सा स्थान है, जहाँ वे नहीं हैं? वे तो यही हैं और अभी-अभी आ जाएँगे।'

द्रौपदीजी झटपट कुटिया में चली गयीं और उन जन-रक्षक आर्तिनाशन मधुसूदन को मन-ही-मन पुकारने लगी। 

पाण्डवों ने देखा कि बड़े वेग से चार श्वेत घोड़ों से जुता द्वारकाधीश का गरुड़ध्वज रथ आया और रथ अभी पूरी तरह रुका भी था कि, वे मयूरमुकुटी श्री कृष्ण उस पर से कूद पड़े। परन्तु इस बार उन्होंने न किसी को प्रणाम किया और न किसी को प्रणाम करने का अवसर दिया।

वे तो सीधे कुटिया में चले गये और अधिक क्षुधातुर (भूखे होने) की भाँति आतुरता से बोले- बहन 'कृष्णे! मैं बहुत भूखा हूँ, झटपट कुछ भोजन दो।'

'तुम आ गये भैया ! मैं जानती थी कि तुम अभी आ जाओगे !' द्रौपदीजी में जैसे नये प्राण आ गये। वे हड़बड़ाकर उठीं और बोली थोड़ा रुको भैया 'महर्षि दुर्वासा को भोजन देना है..

'पहले मुझे भोजन दो। फिर और कोई बात कहना। मुझसे खड़ा नहीं हुआ जाता भूख के मारे।' आज श्यामसुन्दर को अद्भुत भूख लगी थी।

'परन्तु मैं भोजन कर चुकी हूँ। सूर्य देव का दिया बर्तन धो-माँजकर धर दिया है। अब भोजन है कहाँ ? भोजन की व्यवस्था के लिए तुम्हें पुकारा है तुम्हारी इस कंगालिनी बहिन ने।' द्रौपदीजी उस लीलामय के मुख को चकित होकर देख रही थीं।

'बातें मत बनाओ ! मैं बहुत भूखा हूँ। कहाँ है वह बर्तन ? लाओ मुझे दो।' श्रीकृष्णचन्द्र ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। द्रौपदी ने चुपचाप बर्तन उठाकर हाथ में दे दिया उनके। 

कृष्ण ने बर्तन लेकर घुमा-फिराकर उसके भीतर देखा। बर्तन के भीतर चिपका शाक के पत्ते का एक नन्हा टुकड़ा उन्होंने ढूँढ़कर निकाल ही लिया और अपनी लाल-लाल अंगुलियों में उसे लेकर बोले- 'तुम तो कहती थीं कि कुछ है ही नहीं। यह क्या है ? इससे तो सारे विश्व की क्षुधा (भूख) दूर हो जाएगी।'

द्रौपदीजी चुपचाप देखती रहीं और उन द्वारकाधीश ने वह शाक पत्र मुख में डाला यह कहकर - 'विश्वात्मा इससे तृप्त हो जाएँ' और बस, डकार ले ली। विश्वात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने तृप्ति की डकार ले ली तो अब विश्व में कोई अतृप्त कैसे रह सकता था?

वहाँ सरोवर में स्नान करते महर्षि दुर्वासा तथा उनके शिष्यों की बड़ी विचित्र दशा हुई। उनमें से प्रत्येक को डकार-पर-डकार आने लगी। सबको लगा कि कण्ठ तक पेट में भोजन भर गया है। आश्चर्य से वे एक दूसरे की ओर देखने लगे। 

अपनी और शिष्यों की दशा देखकर दुर्वासाजी ने कहा- 'मुझे अम्बरीष की घटना का स्मरण हो रहा है। पाण्डव वन में हैं, उनके पास वैसे ही भोजन की कमी है, यहाँ हमारा आना ही अनुचित हुआ और अब हमसे भोजन किया नहीं जाएगा। 

उनका भोजन व्यर्थ जाएगा तो वे क्रोध करके हम सबको एक पल में नष्ट कर सकते हैं, क्योंकि वे भगवद्भक्त हैं। अब तो एक ही मार्ग है कि हम सब यहाँ से चुपचाप भाग चलें।'

जब गुरु ही भाग जाना चाहें तो शिष्य कैसे टिके रहें। दुर्वासा मुनि जो शिष्यों के साथ भागे तो पृथ्वी पर रुकने का उन्होंने नाम नहीं लिया। सीधे ब्रह्मलोक जाकर वे खड़े हुए।

पाण्डवों की झोंपड़ी से शाक का पत्ता खाकर श्यामसुन्दर मुस्कराते निकले। अब उन्होंने धर्मराज को अभिवादन किया और बैठते हुए सहदेव को आदेश दे दिया कि महर्षि दुर्वासा को भोजन के लिये बुला लायें। 

सहदेव गये और कुछ देर में अकेले लौट आये। महर्षि और उनके शिष्य होते तब तो मिलते। वे तो अब पृथ्वी पर ही नहीं थे।

'दुर्वासाजी अब पता नहीं कब अचानक आ धमकेंगे।' धर्मराज फिर चिन्ता करने लगे; क्योंकि दुर्वासाजी का यह स्वभाव विख्यात था कि वे किसी के यहाँ भोजन बनाने को कहकर चल देते हैं और लौटते हैं कभी आधी रात को, कभी कई दिन बाद, किसी भी समय। लौटते ही उन्हें भोजन चाहिये, तनिक भी देर होने पर एक ही बात उन्हें आती है- शाप देना।

वे इधर कभी झांकेंगे भी नहीं। वे तो दुरात्मा दुर्योधन की प्रेरणा से आये थे।' पाण्डवों के परम रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र ने उन्हें पूरी घटना समझाकर निश्चिन्त कर दिया और तब उनसे विदा होकर वे द्वारका पधारे।

इसलिए कहते हैं दोस्तों! की मन में यदि दृढ़ विश्वास तो भगवान कहीँ दूर नहीं,बल्कि हमारे पास हैं। उन्हें जब पुकारेंगे वो तब दौड़े चलें आयेंगे। जैसे द्रौपदी के बुलाने पर वे बीच रास्ते से ही लौट आए। 

सबसे दुबली आशा

यह कहानी आशा और इच्छा पर आधारित है। 

तुलसी अद्भुत देवता आसा देवी नाम। 

सेये सोक समर्पई बिमुख भये अभिराम ॥ 

एक बार युधिष्ठिर ने भीष्मजी से पूछा कि 'पितामह ! आशा क्या है तथा इसका स्वरूप कैसा है ? बतलाने की कृपा करें। 

अधिकतर देखा जाता है कि सभी पुरुष महान् आशा लेकर अपने कार्य मे लगे रहते हैं; पर जब उन्हें उस कार्य मे सफलता नहीं मिलती या फिर किसी कारणवश कार्य बीच मे ही रुक जाए,तो वह निराश हो जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसा क्यों पितामह?

इस पर भीष्म पितामह ने कहा कि इस सम्बन्ध में मैं तुम्हे राजर्षि सुमित्र और ऋषभ मुनि की कथा सुनाता हूँ ध्यान पूर्वक सुनना क्योंकि इसी मे तुम्हारें प्रश्न का उत्तर छिपा है।

सबसे दुबली आशा

एक बार हैहयवंशी राजा सुमित्र शिकार खेलने गया। वहाँ उसने एक हिरन देखा। उस पर उसने बाण मारा। वह मृग बाण लेकर भागा और राजा ने भी मृगराज का पीछा किया। ऊँचे-नीचे स्थलों, नद-नदियों, पल्लवों, वनों तथा सम-विषम भागों से होकर वह मृग भागता ही चला जा रहा था। 

राजा भी पूरी शक्ति लगाकर उसका पीछा कर रहा था। लेकिन वह मृग हाथ न आया। अन्त में घने जंगल में भटकते-भटकते  राजा सहसा तपस्वियों के आश्रम के सामने पहुंच गया। 

थके- हारे, भूख-प्यास से व्याकुल राजा को देखकर ऋषियों ने उसका यथाविधि स्वागत किया और तदनन्तर उसके वहाँ आने का कारण पूछा।

राजा बोला 'मैं हैहय कुल में उत्पन्न सुमित्र नाम का राजा हूँ। शिकार में मृग का पीछा करता हुआ यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं अत्यधिक थका हुआ, निराश और रास्ते से भटक गया हूँ। इससे बढ़कर मेरे लिये और कष्ट ही क्या हो सकता है ? 

यद्यपि मैं इस समय छत्र, चामर आदि समस्त राजलक्षणों से हीन हूँ, घर, नगर और समस्त प्रकृतिमण्डल से भी अलग हूँ, फिर भी इन सबका मुझे वैसा दुःख नहीं, जैसा इस आशा के भंग होने से (मृग के हाथ से निकल जाने से) हो रहा है।

महाभाग ! आप लोग ज्ञानी है,सब जानते हैं, मैं जानना चाहता हूँ कि इस कठिन आशा को, जो समुद्र, हिमालय और अनन्त आकाश से भी बड़ी मालूम होती है, कैसा स्वरूप एवं क्या लक्षण है? यदि कोई आपत्ति न हो तो आप लोग इसे बतलाने की कृपा करें।

इस पर उन ऋषियों में से ऋषभ नाम के ऋषि बोले- "राजसिंह ! एक बार मैं तीर्थयात्रा करता हुआ नर-नारायण के आश्रम बदरी वन की ओर निकला। आश्रम के समीप ही मैं निवास की खोज में था कि कुशतनु नाम के मुनि दिखाई पड़े। 

अन्य साधारण मनुष्य की अपेक्षा ये आठ गुना अधिक दुबले थे। राजेन्द्र ! मैंने इतना दुबला शरीर कहीं नहीं देखा। बस, उनका शरीर कनिष्ठका अंगुली के बराबर था। उनके हाथ, पैर, गर्दन,सिर, कान, आँख सभी अंग भी शरीर के ही अनुरूप थे। पर उनकी वाणी और चेष्टा (शरीर की हलचल) सामान्य थी।

मैं उन ब्राह्मण देवता को देखकर डर गया और अत्यन्त उदास हो गया। मैंने उन्हें प्रणाम किया और धीरे से वहीं उनके द्वारा दिये गये आसन पर बैठ गया। कृश मुनि धर्ममयी कथा सुनाने लगे। इतने ही वीरद्युम्न नाम का राजा भी वहीं पहुँच गया। 

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उसका एकमात्र पुत्र भूरिद्युम्न शिकार में खो गया था। उसने कृश मुनि से उसके सम्बन्ध में अपनी आशा तथा चिन्ता व्यक्त की और उसकी जानकारी चाही। 

कृश मुनि ने कहा कि उसने एक ऋषि की अवहेलना की थी, आशा भंग की थी, अतएव उसकी यह दशा हुई। ये सुनकर वीरद्युम्न दुःखी और निराश हो गया।

कृश मुनि ने कहा, 'राजन! दुराशा छोड़ो। मैंने यह निश्चय किया है कि जो आशा से जीत लिया गया है, वही दुर्बल है; जिसने आशा को जीत लिया, वास्तव में वही बलवान है।'

इस पर वीरद्युम्न ने कहा-' महाराज! क्या आपसे भी यह आशा कृशतर- दुबली है। मुझे तो इस बात पर बड़ा संशय हो रहा है।' मुनि ने कहा-'राजन् ! शक्ति होने पर भी जो दूसरे का उपकार नहीं करता, योग्य पुरुषों का सत्कार नहीं करता, उस परमासक्त पुरुष की दुराशा मुझसे दुबली है। 

किसी एक पुत्र वाले पिता को जो पुत्र के विदेश जाने या भूल जाने या पता न लगने पर जो उसकी आशा होती है, वह मुझसे दुबली है। जो आशा कृतघ्न, नृशंस, आलसी तथा अपकारी पुरुषों में मिला है, वह आशा मुझसे कहीं दुबली है।'

इन सब बातों को सुनकर राजा मुनि के चरणों पर गिर पड़ा और उसने अपने पुत्र की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। मुनि ने भी अपने योगबल तथा तपोबल से हँसकर उसे तुरन्त ला दिया। पुनः उन्होंने अपना अद्भुत दिव्य धर्ममय रूप दिखलाया और वन में वे अन्यत्र चले गए। 

अतएव अत्यन्त दुर्बल दुराशा ,सर्वथा त्याग करने के योग्य है। अर्थात जिस वस्तु को पाने मे या किसी कार्य को करने पर भी यदि सफलता नहीं मिलती, तो ऐसी सफलता, आशा, इच्छा को त्याग देना ही उचित है। अन्यथा वही आशा मनुष्य के लिए दुखदायी हो जाती हैं। 

प्रिय पाठकों! आशा करते हैं कि आपको कहानी अच्छी लगी होगी। ऐसी ही प्राचीन सत्य कहानियों के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहिए,मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

हर हर महादेव 

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