सच्चे सन्त का शाप भी मंगलकारी होता है- चार पौराणिक कथाएं

हर हर महादेव!प्रिय पाठकों,कैसे है आप लोग आशा,आशा करते हैं कि आप सकुशल होंगें। 

चार पौराणिक कथाएं 

पहली कथा 

सत्संग की महिमा 

एक समय की बात है,महर्षि वशिष्ठ जी विश्वामित्र जी के आश्रम पर पधारे। विश्वामित्रजी ने उनका स्वागत-सत्कार तो किया ही, आतिथ्य में अपनी एक हज़ार वर्ष की तपस्या का फल भी अर्पित किया। कुछ समय पश्चात् विश्वामित्रजी वशिष्ठजी के अतिथि हुए। 

वशिष्ठजी ने भी उनका यथोचित सत्कार किया और उन्हें अपनी आधी घड़ी के सत्संग का पुण्य अर्पित किया। परन्तु वशिष्ठजी के इस व्यवहार से विश्वामित्र जी को क्षोभ हुआ। यद्यपि वे कुछ बोले नहीं; फिर भी उनके मुख पर आया रोष का भाव छिप नहीं सका। 

उस भाव को लक्षित करके वशिष्ठजी बोले-'मैं देख रहा हूँ कि आपको अपनी सहस्त्र वर्ष की तपस्या के समान मेरा आधी घड़ी का सत्संग नहीं जान पड़ता। क्यों न हम लोग किसी से निर्णय करा लें।'

दोनों ब्रह्मर्षि ठहरे, उनके विवाद का निर्णय करने का साहस कोई ऋषि-मुनि भी नहीं कर सकता था, राजाओं की तो बात ही क्या ? वे ब्रह्मलोक पहुँचे। परन्तु ब्रह्माजी ने भी सोचा कि इनमें कोई रुष्ट होकर शाप दे देगा तो विपत्ति में पड़ना होगा। उन्होंने कह दिया- 'आप लोग भगवान विष्णु के पास पधारें; क्योंकि सृष्टि के कार्य में व्यस्त होने के कारण मैं स्वस्थ चित्त से कोई निर्णय देने में असमर्थ हूँ।'

'मैं आप दोनों के चरणों में प्रणाम करता हूँ। तपस्या और सत्संग के महात्म्य का निर्णय वही कर सकता है, जो स्वयं इनमें लगा हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं। आप लोग तपोमूर्ति भगवान शंकरे से पूछने की कृपा करें।' भगवान विष्णु ने भी दोनों ऋषियों को यह कहकर विदा कर दिया।

दोनों ऋषि कैलास पहुँचे; किन्तु शंकरजी ने भी कह दिया- 'जबसे मैंने हलाहल पान किया है, तब से चित्त की स्थिति निर्णायक बनने जैसी नहीं रही पे है। किन्तु हाँ शेष नाग जी अपने मस्तक पर पृथ्वी उठाये हमेशा तप करते रहते हैं और अपने सहस्त्र (हजार) मुखों से मुनिवृन्द को सत्संग का लाभ देते रहते हैं। वे अवश्य आप लोगों का निर्णय कर सकते हैं।'

अब दोनों ब्राह्मण पाताल लोक पहुंचे। पाताल पहुँचने पर दोनों महर्षियों की बात शेषजी ने सुन ली और बोले-'आप में से कोई अपने प्रभाव से इस पृथ्वी को कुछ क्षण अधर में रोके रहें तो मेरा भार कम हो और मैं स्वस्थ होकर विचार करके निर्णय लूँ।'

तब विश्वामित्र जी ने हाथ में जल लेकर संकल्प किया; और बोलें-मैं एक हज़ार वर्ष के तप का फल अर्पित करता हूँ, ये पृथ्वी आकाश में एक ही जगह रुकी रहे। लेकिन पृथ्वी तो शेषनाग के मस्तक से हिली भी नहीं।

Seshnag aur prthvi

अब इसके बाद ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी ने हाथ मे जल लेकर कहा कि-मैं आधी घड़ी के अपने सत्संग का पुण्य देता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण गगन में ही अवस्थित रहे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी ने संकल्प किया और पृथ्वी शेषजी के फणों से ऊपर उठकर निराधार ,बिना किसी सहारे के स्थित हो गयीं।

अब निर्णय करने-कराने को कुछ रहा ही नहीं था। क्योंकि पृथ्वी के ऊपर उठने से ये स्पष्ट हो गया था कि कौन कितना महान है। इसलिए विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी के चरण पकड़ लिये और कहा-'भगवन! आप सदा से महान हैं।'

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दूसरी कथा

सच्चे सन्त का शाप भी मंगलकारी होता है।

घनाधीश कुबेर के दो पुत्र थे- नलकूबर और मणिग्रीव। कुबेर के पुत्र, फिर सम्पत्ति का पूछना क्या। युवावस्था थी, यक्ष होने के कारण अत्यन्त बली थे, लोकपाल के पुत्र होने के कारण परम स्वतन्त्र थे।

युवावस्था, धन, प्रभुत्व और विचारहीनता- इनमें से प्रत्येक अनर्थ का कारण है; फिर जहाँ चारो हों, वहाँ तो पूछना ही क्या। कुबेर के पुत्रों में चारों दोष एक साथ आ गये। दोनों धन-मद से उन्मत्त रहने लगे।

एक बार वे स्त्रियों के साथ मदिरा पीकर जल मे नंगे होकर खेल रहे थे। उसी समय देवर्षि नारद उधर से निकले। देवर्षि को देखकर स्त्रियां झटपट जल से बाहर निकल आयी और उन्होंने बस्त्र पहन लिये; किंतु दोनों कुबेर पुत्र वैसे ही नंग-धडंग खड़े रहे। देवर्षि का कोई सत्कार या प्रणाम करना उन्हें उचित नही लगा।

Nalkuber aur Manigriva ko shap dete Naradji

देवर्षि को उनकी दशा देखकर उनपर क्रोध तो नहीं आया, पर दया जरूर आ गई। कुबेरजी लोकपाल हैं, उनके गण भी उपदेव माने जाते हैं, भगवान शंकर उन्हें अपना सखा कहते हैं; और उनके ये पुत्र ऐसे असभ्य और मदान्ध ! दया करके देवर्षि ने शाप दे दिया-'तुम दोनों जड़ की भाँति खड़े हो, अत: जड़ वृक्ष हो जाओ।'

सन्त के दर्शन से कोई बन्धन में नहीं पड़ता। सन्त के शाप से किसी का अमंगल नहीं होता। सन्त तो हैं ही मंगलमय। उसका दर्शन, स्पर्श, सेवन तो मंगलकारी है ही, उसके रोष और शाप से भी जीवन का परिणाम में मंगल ही होता है। देवर्षि ने शाप देते हुए कहा-'तुम दोनों ब्रज में नन्द द्वार पर सटे हुए अर्जुन के वृक्ष बनो। द्वापर में अवतार लेकर श्रीकृष्णचन्द्र वृक्ष योनि से तुम्हारा उद्धार करेंगे और तब तुम्हें भगवद्भक्ति प्राप्त होगी।'

यह शाप है या वरदान ? श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त होगा, स्पर्श प्राप्त होगा और भगवद्भक्ति प्राप्त होगी। ब्रज में निवास प्राप्त होगा और वह भी नन्द द्वार पर। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब श्यामसुन्दर की स्तुति की बच्चों का अपहरण करने के बाद, तब वे भी इतना साहस नहीं कर सके कि नन्दपौरि पर वृक्ष होने की प्रार्थना कर सकें। 

डरते-डरते उन्होंने यही प्रार्थना की- 'नाथ! मुझे ब्रज में कुछ भी बना दीजिये।' सृष्टिकर्ता प्रार्थना करके भी ब्रज के तृण होने का वरदान नहीं पा सके और उद्धत कुबेर पुत्रों को शाप मिल गया नन्द द्वार पर दीर्घ काल तक वृक्ष होकर रहने का-यह सन्त के दर्शन का प्रभाव था।

लीलामय नटनागर(कृष्ण)ने द्वापर में अवतार लेकर अपने ही घर में दही का मटका फोड़ा, माखन चुराया और इस प्रकार मैया यशोदा को रुष्ट करके उनके हाथों अपने को ऊखल से बँधवाया। 

Nalkuber and Manigriva with Krishna

इसके बाद रस्सी से ऊखल से बंधे वह कृष्ण ऊखल घसीटते अपने द्वार पर अर्जुन वृक्ष बने कुबेर पुत्रों के पास पहुँचे। वृक्षों के बीच ऊखल अटकाकर उन्होंने बलपूर्वक वृक्षों को गिरा दिया; क्योंकि अपने प्रिय भक्त नारदजी की बात उन्हें सत्य जो करनी थी। इसलिए उन्होंने पेड़ों को गिराकर कुबेर के दोनो पुत्रों को वृक्ष योनि से मुक्त कर दिया ।

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तीसरी कथा 

एक पल का कुसंग भी विनाश का कारण होता है।

किसी समय कन्नौज में अजामिल नाम का एक तरुण ब्राह्मण रहता था। वह शास्त्रों का विद्वान था, शीलवान था, कोमल स्वभाव का, उदार, सत्यवादी तथा संयमी था। गुरुजनों का सेवक था, समस्त प्राणियों का हितैषी था, बहुत कम और मीठी वाणी बोलता था एवं किसी से भी द्वेष या घृणा नहीं करता था।

Brahmin Ajamil

वह धर्मात्मा ब्राह्मण युवक पिता की आज्ञा से एक दिन वन में फल, पुष्प, अग्निहोत्र के लिए सूखी समिधा और कुश लेने गया। इन सब सामग्रियों को लेकर वह लौटने लगा तो उससे एक भूल हो गयी। वह ऐसे मार्ग से लौटा, जिस मार्ग में आचरणहीन लोग रहा करते थे। यह एक नन्हीं सी भूल ही उस ब्राह्मण के पतन का कारण हो गयी।

ब्राह्मण अजामिल जिस मार्ग से लौट रहा था, उस मार्ग में एक शूद्र एक दुराचारिणी स्त्री के साथ शराब पीकर निर्लज्ज मज़ाक कर रहा था। वह स्त्री शराब के नशे में लज्जाहीन हो रही थी। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो रहे थे। 

अजामिल ने पास से यह दृश्य देखा। वह शीघ्रतापूर्वक वहां से चला आया; किन्तु उस दृश्य को देखकर उसके मन में पल भर के लिए गलत विचार कुसंग से ही प्रबल हो चुका था।

अजामिल घर तो चला आया; किन्तु उसका मन उन्मत्त हो उठा। वह बार- बार मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करता था; किन्तु मन उस दुराचारिणी स्त्री को ही याद करने में लगा था। अन्ततः अजामिल मन को शांत नही कर सका। 

एक पल के कुसंग ने धर्मात्मा संयमी ब्राह्मण को पाप के सागर में डुबा दिया। अब तो अजामिल उस चरित्रहीन स्त्री को ही सन्तुष्ट करने में लग गया। माता-पिता, जाति-धर्म कुल-सदाचार और साध्वी पत्नी को भी उसने छोड़ दिया। 

लोक-निन्दा का कोई भय उसे रोक नहीं सका। समस्त पैत्रिक धन घर से ले जाकर उसने उसी कुलटा को सन्तुष्ट करने में लगा दिया और बात यहाँ तक बढ़ गयी कि उसी स्त्री के साथ अलग घर बनाकर रहने लगा।

जब एक बार मनुष्य का पतन हो जाता है, तब फिर उसका संभलना कठिन होता है। वह बराबर नीचे ही गिरता जाता है। धीरे-धीरे अजामिल का सब धन खत्म हो गया। लेकिन उसे तो उस कुलटा नारी को सन्तुष्ट करना था और इसका उपाय था उसे धन देते रहना।

और इसलिए उसने चोरी, जुआ, छल-कपट-जिस उपाय से धन मिले वो हर गलत कार्य करने लगा,जिससे धन प्राप्त हो सके। धर्म-अधर्म का प्रश्न ही अजामिल के सामने से हट गया।

एक पल भर का कुसंग कितना महान अनर्थ करता है। एक धर्मात्मा संयमी एक क्षण के प्रमाद से आचारहीन घोर अधर्मी बन गया।

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चौथी कथा 

पल भर का सत्संग दोषपूर्ण जीवन को भी  कर देता है।

उलटा नाम जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।

बहुत प्राचीन बात है, संगदोष से एक ब्राह्मण क्रूर डाकू बन गया था। जन्म से ही वह अशिक्षित था। अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए उसने बड़ा घोर मार्ग अपनाया। घोर वन से जाने वाले एक मार्ग के समीप उसका अड्डा था। 

जो भी यात्री उधर से निकलता, उसे वह मार डालता, बिना यह सोचे कि इस हत्या से उसे लाभ कितना होगा। मृत व्यक्ति के पास जो कुछ मिलता, उसे लेकर वह शव को कहीं ठिकाने लगा देता। उसने इतने व्यक्ति मारे कि उनमें जो द्विजाति थे, उनके यज्ञोपवीत (जनेऊ) ही साढ़े सात बैल गाड़ी एकत्र हो गये।

वह मार्ग यात्रियों के लिए मृत्यु-द्वार बन गया था। पथिकों की यह विपत्ति देवर्षि नारद से देखी नहीं गयी। वे स्वयं उसी मार्ग से चल पड़े। सदा की भांति शस्त्र उठाये डाकू उन पर भी झपटा। देवर्षि को भला, भय क्या।

नारदजी और वाल्मीकि( रत्नाकर डाकू)


उन्होंने कहा-'भाई! तुम व्यर्थ में क्रोध करते हो ? शस्त्र उठाने से भला क्या लाभ? मैंने तो तुम्हारा कुछ बिगाडा भी नहीं है। तुम चाहते क्या हो ?' उस ब्राह्मण डाकू ने कहा-'मैं चाहता हूँ तेरे प्राण, तेरी यह दमडी और वस्त्र तथा तेरे पास कुछ और निकले तो वह भी।' 

लगातार जीवन-हत्या का यह पाप किये बिना भी तो तुम वन के फल कन्द से पेट भर सकते हो !' देवर्षि का तेज और उनके स्वर में भरी दया, डाकू को स्तम्भित किये दे रहे थे।

डाकू बोला-"किंतु मेरे माता-पिता, स्त्री-पुत्र का पेट कौन भरेगा, तू?' 

नारदजी ने बड़े प्यार से कहा- भाई! तुम जिनके लिये नित्य यह पाप करते हो, उनमें से कोई तुम्हारे पाप का फल भोगने में भाग नहीं लेगा। अपने पाप का फल तुम्हें अकेले ही भोगना होगा।' 

'यह कैसे हो सकता है ?' डाकू विचलित हो उठा था। 'जो मेरे पाप से कमाये धन का सुख भोगते हैं, वे मेरे पाप के फल में भी भाग तो लेंगे ही।'

'बहुत भोले हो, भाई ! पाप के फल में कोई भाग नहीं लेगा। तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो घर जाकर उन लोगों से पूछ लो।' देवर्षि ने बात पूरी कर दी।

डाकू ने शस्त्र संभालते हुए कहा- बाबाजी ! तू मुझे मूर्ख बनाना चाहता है। मैं घर पूछने जाऊँ और तू यहाँ से खिसकता बने !' 

'तुम मुझे इस पेड़ के साथ भलीभाँति बाँध दो।' चुपचाप नारदजी स्वयं एक पेड़ से लगकर खड़े हो गये।

अब डाकू को उनकी बात सच्ची लगी। उसने उन्हें पेड़ के साथ वन की लताओं से भलीभाँति बाँध दिया और स्वयं तेज दौड़ता हुआ हुआ अपने घर पहुँचा। 

घर जाकर उसने पिता से पूछा- 'पिताजी ! आप तो जानते ही हैं कि मैं यात्रियों की हत्या करके उनके साथ की सामग्री लाता हूँ और उसी से परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। मैं जो नित्य यह पाप करता हूँ, उसके फल में आपका भी तो भाग है न।'

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थोड़ा खाँसकर पिता ने उसकी ओर देखा और कहा-'बेटा! हमने तुम्हारा पालन-पोषण किया, तुम्हें छोटे से बड़ा किया और अब तुम समर्थ हो गये। हमारी वृद्धावस्था आ गयी। तुम्हारा कर्तव्य है हमारा भरण- पोषण करना। तुम कैसे धन लाते हो, इससे हमें क्या? तुम्हारे पाप-पुण्य में भला हमारा भाग क्यों होने लगा ?'

पहली बार डाकू चौंका। वह माता के पास गया; किन्तु माता ने भी उसे वही उत्तर दिया, जो पिता ने दिया था। उसने पत्नी से पूछा- 'पत्नी ने कहा- 'स्वामी! मेरा कर्तव्य है आपकी सेवा करना, आपके गुरुजनों तथा परिवार की सेवा करना। 

वह अपना कर्त्तव्य मैं पालन करती हूँ। आपका कर्तव्य । मेरी रक्षा करना और मेरा पोषण करना, वह आप करते हैं। इसके लिए आप कैसे धन लाते हैं सो आप जानें आपके उस पाप से मेरा क्या सम्बन्ध उसमें क्यों भाग लूँगी ?'

डाकू निराश हो गया, फिर भी अपने बालक पुत्र से अन्त में पूछा। बालक ने और स्पष्ट उत्तर दिया-'मैं छोटा हूँ, असमर्थ हूँ; अतः आप मेरा भरण-पोषण करते हैं। मैं समर्थ हो जाऊँगा, तब आप वृद्ध और असमर्थ हो जाएँगे। 

उस समय मैं आपका भरण-पोषण करूँगा और अवश्य करूँगा। यह परस्पर सहायता की बात है। आपके पाप को आप जानें; मैं उसमें कोई भाग लेना नहीं चाहता, न लूंगा।'

डाकू के नेत्रों के आगे अन्धकार छा गया। जिनके लिये वह इतने पाप कर चुका, वे कोई उस पाप का दारुण फल भोगने में उसका साथ नहीं देना चाहते। उसका हृदय पश्चात्ताप से जलने लगा। दौड़ा-दौड़ा वह वन की ओर पहुंचा। वहाँ पहुँचकर देवर्षि के बन्धन की लताएँ उसने तोड़ फेंकी और रोता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा।

रोते हुए उसने नारदजी से कहा- बाबा जी मेरा ह्रदय पश्चाताप की आग से जल रहा है,मुझे घुटन हो रही है। कृपया मुझे इससे बचने का कोई मार्ग बताएं। 

नारदजी ने उसे उठा कर अपने गले से लगाया और कहा- पुत्र! तुम्हें निराश होने की कोई जरूरत नही। सब ठीक हो जाएगा।'तुम राम-नाम का जप करो।'इस नाम मे बहुत शक्ति है। ये नाम हर प्राणि को कष्टों से दूर रखता है और उन्हें मुक्ति दिलाता है। 

डाकू ने बाबा जी की बात मानी और लगा जप करने। पर जिसने अनेकों हत्याएं की हो, जिसके हृदय मे दया का भाव न हो और जिसकी वाणी ने कभी मीठे वचन न बोले हो, तो भला is पवित्र को कैसे जपता। 

डाकू जब-जब राम बोलने की कोशिश करता तो वो राम की जगह मरा मरा बोलता। अनेक कोशिशों के बाद भी वह राम नाम ठीक से न ले पाया। 

परेशान होकर उसने नारदजी से कहा- बाबाजी मैं क्या करूं? कुछ समझ नही आता। मैं ठीक से नाम नही ले पा रहा। 

दोस्तो! नारदजी के होते हुए भला हार कैसे होती। जब नारदजी जी कभी नहीं हारते तो वो अपने शिष्य को भला कैसे हारने देते। उन्होंने डाकू से कहा- पुत्र! चिंता की कोई बात नही। तुम 'मरा मरा' ही जपो।'

नारदजी की बात मानकर डाकू वहीं उसी स्थान पर बैठ गया aur mra mra जपने लगा। उसका मन बड़ा प्रसन्न था। उल्टे राम नाम जपने मे वह इतना लीन हो गया की उसे ही नही चला कि उसके उपदेष्टा (उपदेश देने वाले नारद जी) कब चले गये ? 

'मरा मरा मरा मरा... जपते-जपते दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतते चले गये; किन्तु डाकू को कुछ पता नहीं था। उसके शरीर में दीमक लग गयी, धीरे-धीरे उसके ऊपर दीमकों ने अपने बाँबी बल्मीक ( बिल) बना लिए। 

डाकू के तप ने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को आश्चर्य में डाल दिया। वे स्वयं पधारे और वहाँ अपने कमण्डलु के अमृत-जल से उन्होंने उस तपस्वी पर छींटे दिये। उन जल-सीकरों के प्रभाव से उस दीमकों के बल्मीक ( दीमकों द्वारा लगाये गये मिट्टी के ढेर) से जो पुरुष निकल खड़ा हुआ, वह अब पूरा बदल चुका था। उसका रूप, रंग, शरीर और हृदय सब दिव्य हो चुका था।

कोई ठीक से नहीं जानता था कि डाकू का नाम क्या था? कोई-कोई तो उसे रत्नाकर कहते थे। किंतु वह जो तपस्वी उठा, बल्मीक से निकलने के कारण उसे बाल्मीकि कहा गया। 

वाल्मीकि जी


वह आदि कवि, भगवान श्रीराम के निर्मल यश का प्रथम गायक-विश्व उसकी वन्दना करके आज भी कृतार्थ होता है। रहा होगा वह कभी अज्ञातनामा क्रूर डाकू; किंतु एक पल भर के सत्संग ने उसे महत्तम बना दिया।

प्रिय पाठकों आशा करते हैं कि आपको कहानियां पसंद आई होंगी। ऐसी ही रोचक, ज्ञानवर्धक और सच्ची कहानियों के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यबाद 

जय श्री सीता राम 


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