कहानी एक मात्र कर्तव्य क्या है।

ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था 'नारद! भगवान नारायण ही परम तत्त्व हैं। वे हो परम ज्ञान, परम चहा, परम ज्योति परम आत्मा अथवा परम से भी परम है, उनसे परे कुछ भी है। उनका ध्यान करना ही एक मात्र कर्तव्य है.......

जय श्री राम प्रिय पाठकों! कैसे है आप लोग

आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे। 

एक मात्र कर्तव्य क्या है।

पुण्डरीक नाम के एक बड़े भगवद्भक्त गृहस्थ ब्राह्मण थे। साथ ही वे बड़े धर्मात्मा, सदाचारी, तपस्वी तथा कर्मकाण्ड निपुण थे। वे माता-पिता के सेवक, विषय-भोगों से हमेशा दूर रहने वाले और बड़े कृपालु थे। 

एक मात्र कर्तव्य क्या है
कहानी एक मात्र कर्तव्य क्या है।

एक बार अधिक उदासीनता के कारण वे पवित्र मनोहर वन्य तीथाँ की यात्रा की अभिलाषा से निकल पड़े। वे केवल कन्द-मूल-शाकादि खाकर गंगा, यमुना, गोमती, गण्डक, सरयू, शोण, सरस्वती, प्रयाग, नर्मदा, गया तथा विन्ध्य एवं हिमाचल के पवित्र तीर्थों में घूमते हुए शालग्राम क्षेत्र (आज के हरिहर-क्षेत्र) पहुंचे और वहाँ पहुँचकर प्रभु की आराधना में तल्लीन हो गये। 

वे विरक्त( उदासीन) तो थे ही, अतएव इस तुच्छ क्षणभंगुर यौवन, रूप, आयुष्य आदि से सर्वथा दूर होकर वह सहज ही भगवद्ध्यान में लीन हो गये और संसार को बिल्कुल भूल गये।

देवर्षि नारजी को जब इस बारे मे पता चला, तो वह उन्हें देखने  के लिए गए। पुण्डरीक ने बिना पहचाने ही उनकी षोडशोपचार (16 तरीक़ों) से पूजा की और फिर उनसे परिचय पूछा। 

जब नारदजी ने उन्हें अपना परिचय तथा वहाँ आने का कारण बतलाया, तब पुण्डरीक हर्ष से गद्गद् हो गये। वे बोले- 'महामुने ! आज मैं धन्य हो गया। मेरा जन्म सफल हो गया तथा मेरे पितर कृतार्थ हो गये। पर देवर्षे ! मैं एक संदेह में पड़ा हूँ, उसे आप ही हल कर सकेंगे। 

आत्मा जब शरीर छोड़ती है,तो क्या मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है?

कुछ लोग सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कुछ सदाचार की। इसी प्रकार कोई सांख्य की, कोई योग की तो कोई ज्ञान की महिमा गाते हैं। कोई क्षमा, दया, ऋतुजा आदि गुणों की प्रशंसा करता दिखाई देता है। 

इसी प्रकार कोई दान, कोई वैराग्य, कोई यज्ञ, कोई ध्यान और कोई अन्यान्य कर्मकाण्ड के अंगों की प्रशंसा करता है। ऐसी दशा में मेरा चित्त इस सही और गलत का निर्णय लेने में अत्यन्त भ्रमित हो रहा है कि वस्तुतः अनुष्ठेय (कर्त्तव्य) क्या है।'

इस पर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- 'पुण्डरीक ! वस्तुतः शास्त्रों तथा धर्म-कर्म के अनेक रूप होने के कारण ही विश्व के विचित्र और  अनेक रूप है। देश, काल, रुचि, वर्ण, आश्रम तथा प्राणिविशेषज्ञ के भेद से ऋषियों ने विभिन्न धर्मों का विधान किया है। 

साधारण मनुष्य की दृष्टि अनागत, अतीत, विप्रकृष्ट, व्यवहित तथा अलक्षित वस्तुओं तक नहीं पहुँचती । अतः मोह से जीतना मुश्किल है। इस प्रकार का संशय, जैसा तुम कह रहे हो, एक बार मुझे भी हुआ था। जब मैंने उसे ब्रह्माजी से कहा, तब उन्होंने उसका बड़ा सुन्दर निर्णय दिया था। मैं उसे तुमको ज्यों-का-त्यों सुना देता हूँ। 

ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था 'नारद! भगवान नारायण ही परम तत्त्व हैं। वे हो परम ज्ञान, परम चहा, परम ज्योति परम आत्मा अथवा परम से भी परम है, उनसे परे कुछ भी है। 

'इस संसार में जो कुछ भी देखा-सुना जाता है, उसके बाहर-भीतर सर्वत्र नारायण ही व्याप्त हैं। जो नित्य-निरन्तर, सदा-सर्वदा भगवान् का अनन्य भाव से ध्यान करता है, उसे यज्ञ, तप अथवा यात्रा की आवश्यकता नही है। बस, नारायण ही सर्वोत्तम ज्ञान, योग, सांख्य तथा धर्म हैं। 

गौ सेवा का शुभ परिणाम 

जिस प्रकार कई बड़ी-बड़ी सड़कें किसी एक विशाल नगर में प्रवेश होती हैं, अथवा कई बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं, उसी प्रकार सभी मार्गों का पर्यवसान (अंत) उन परमेश्वर में होता है। 

मुनियों ने यथारुचि, यथामति उनके भिन्न-भिन्न नाम-रूपों की व्याख्या की है। कुछ शास्त्र तथा उन्हें विज्ञान मात्र बतलाते हैं, कुछ परब्रह्मा परमात्मा कहते हैं, कोई उन्हें महाबली अनन्तकाल के नाम से पुकारता है, कोई सनातन जीव कहता है, कोई क्षेत्रज्ञ कहता है तो कोई षड्विंशक तत्त्वरूप बतलाता है, कोई अंगुष्ठमात्र कहता है तो कोई पद्मरज की उपमा देता है। 

नारद । यदि शास्त्र एक ही होता तो ज्ञान भी संदेह रहित तथा उनमे मिला हुआ होता है। किन्तु शास्त्र बहुत है-इसलिए विशुद्ध, संशयरहित ज्ञान तो सर्वथा मुश्किल ही है। फिर भी जिन मेधावी महानुभावों ने इस बारे मे बहुत पढ़ा है, अच्छे ढंग से इस पर विचार किया है, वे इस इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सदा सर्वत्र, नित्य-निरन्तर, सर्वात्मना एकमात्र नारायण का ही ध्यान करना सर्वोपरि परमोत्तम कर्तव्य है।

तो प्रिय पाठकों, कैसी लगी आपको कहानी। आशा करते हैं अच्छी लगी होगी। मनुष्य का एक कर्तव्य क्या है ये आप इस कहानी के माध्यम से समझ गए होंगे। फिर भी यदि कोई शंका हो तो आप अपनी राय अवश्य प्रकट कर सकते हैं। 

इसी के साथ विदा लेते हैं। ऐसी ही रोचक और सत्य कथाओं के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखें, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

जय श्री राम 

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