श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का रहस्य: गीता के किस अध्याय में मिलता है दिव्य दर्शन?
जब मनुष्य ने ईश्वर को सीमाओं से परे देखा…
कल्पना कीजिए-
एक युद्धभूमि, चारों ओर शंखनाद, रथों की गड़गड़ाहट, अस्त्र-शस्त्रों की चमक।
और उसी बीच अर्जुन, कांपते हाथों से धनुष गिरा चुका है।
वह पूछता है-
“हे कृष्ण! यदि आप स्वयं को ईश्वर कहते हैं, तो मैं आपके वास्तविक स्वरूप को देखना चाहता हूँ।”
और तभी…
जो दृश्य प्रकट होता है, वह केवल अर्जुन के लिए नहीं था,
वह समूची मानवता के लिए था।
यही है श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप।
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| अर्जुन को दिखाया गया श्रीकृष्ण का विराट दर्शन |
गीता के किस अध्याय में आता है विराट स्वरूप?
श्रीमद्भगवद्गीता के 11वें अध्याय में
श्रीकृष्ण अपने विराट (विश्व) स्वरूप का वर्णन और दर्शन कराते हैं।
इस अध्याय का नाम है-
“विश्वरूप दर्शन योग” (Vishwarupa Darshana Yoga)
यह गीता का सबसे अद्भुत, रहस्यमय और आध्यात्मिक रूप से सबसे ऊँचा अध्याय माना जाता है।
विराट स्वरूप क्या है?
विराट स्वरूप का अर्थ है-
ईश्वर का ऐसा रूप जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड समाया हुआ हो।
- सभी देवता
- सभी लोक
- समय (भूत, वर्तमान, भविष्य)
- जन्म और मृत्यु
- सृजन और विनाश
- सब कुछ एक ही शरीर में।
कृष्ण यह बताते हैं कि-
“मैं केवल एक व्यक्ति नहीं हूँ, मैं सम्पूर्ण अस्तित्व हूँ।”
अर्जुन ने विराट स्वरूप क्यों देखना चाहा?
अर्जुन पहले से ही कृष्ण को प्रेम करता था, मित्र मानता था।
लेकिन उसके मन में यह प्रश्न था-
क्या कृष्ण सच में परमेश्वर हैं?
या केवल एक महान पुरुष?
अर्जुन का यह प्रश्न केवल उसका नहीं था-
यह हर उस मनुष्य का प्रश्न है जो कृष्ण को प्रेम तो करता है,
पर जानना चाहता है कि-
यदि आप इस प्रश्न को गहराई से समझना चाहते हैं, तो यह लेख अवश्य पढ़ें।
अर्जुन कहता है (गीता 11.3 के भावार्थ अनुसार):
“यदि आप मुझे योग्य समझते हैं,
तो हे योगेश्वर!
मुझे अपना अविनाशी स्वरूप दिखाइए।”
दिव्य नेत्रों का महत्व
कृष्ण तुरंत कहते हैं-
“मेरे इस स्वरूप को साधारण आँखों से नहीं देखा जा सकता।”
फिर वे अर्जुन को दिव्य दृष्टि (दिव्य नेत्र) प्रदान करते हैं।
इसका गहरा अर्थ है- ईश्वर को देखने के लिए
शरीर की नहीं, चेतना की आँख चाहिए।
विराट स्वरूप का वर्णन (गीता अध्याय 11 से)
जब अर्जुन देखता है विराट स्वरूप-
- हजारों मुख
- हजारों नेत्र
- अनगिनत भुजाएँ
- सूर्य और अग्नि जैसी तेजस्विता
- सभी देवता उसी में स्थित
- समय स्वयं उसके भीतर गतिमान
अर्जुन देखता है--
योद्धा उस विराट मुख में प्रवेश कर रहे हैं
जैसे पतंगे अग्नि में समा जाते हैं
यही वह क्षण है जब कृष्ण कहते हैं--
“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः”
अर्थात
“मैं ही काल हूँ, लोकों का संहार करने वाला।”
विराट स्वरूप का सबसे गहरा संदेश
यह दर्शन डराने के लिए नहीं था,
बल्कि सत्य दिखाने के लिए था। की-
- कर्ता तुम नहीं हो
- समय सब कुछ कर रहा है
- निमित्त मात्र बनो
- अहंकार छोड़ो
कृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि-
“युद्ध तुम नहीं कर रहे,
युद्ध तो हो चुका है।
तुम केवल माध्यम हो।”
अर्जुन की प्रतिक्रिया
विराट स्वरूप देखकर अर्जुन-
- भयभीत हो जाता है
- काँपने लगता है
- क्षमा माँगता है
- वह कहता है-
- “मैंने आपको मित्र समझकर जो कुछ कहा,
- उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।”
यहाँ से एक सुंदर शिक्षा मिलती है-
ईश्वर से निकटता अच्छी है,
लेकिन उनके सत्य स्वरूप का सम्मान आवश्यक है।
कृष्ण का सौम्य रूप में लौटना
अर्जुन के भय को देखकर
कृष्ण पुनः अपना सौम्य, चतुर्भुज और फिर मानव रूप दिखाते हैं।
य़ह इस बात को।दर्शाता है कि-
ईश्वर जितने विशाल हैं, उतने ही करुणामय भी।
आज के जीवन में विराट स्वरूप का अर्थ
आज हम पूछ सकते हैं- इस अध्याय का हमारे जीवन से क्या संबंध?
- जब अहंकार बढ़े - विराट स्वरूप याद करो
- जब डर लगे - समझो, सब समय के अधीन है
- जब खुद को बहुत बड़ा समझो - यह अध्याय पढ़ो
- जब जीवन का भार लगे - निमित्त भाव अपनाओ

