संस्कारों की पुकार – डिजिटल युग के शोर में डूबती नई पीढ़ी
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| मोबाइल के आकर्षण के बीच खोई पीढ़ी और संस्कारों की धीमी पुकार। |
जय श्री कृष्ण प्रिय पाठकों,
कैसे हैं आप? आज हम एक ऐसे विषय पर बात करेंगे जो हर माता-पिता, हर अध्यापक, और हर सोचने वाले इंसान के मन में गूंजता है।
क्या आने वाली पीढ़ी संस्कारों से दूर होती जा रही है?
क्या सोशल मीडिया, मोबाइल और वर्चुअल दुनिया ने हमारे बच्चों की असली परवरिश छीन ली है?
समय बदल गया, पर मूल्य नहीं
समय के साथ सब कुछ बदलता है - कपड़े, भाषा, तकनीक, जीवनशैली।
लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो कभी पुरानी नहीं होतीं -
वो हैं संस्कार, नैतिकता और आस्था।
पहले घरों में दादी की कहानियाँ होती थीं, आरती की आवाज़ गूंजती थी,
अब वहाँ मोबाइल की घंटियाँ बजती हैं, और टीवी के सामने सब खामोश बैठे रहते हैं।
संवाद खत्म हो गए, और संस्कार भी धीरे-धीरे फीके पड़ने लगे।
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सोशल मीडिया: साधन या जाल?
सोशल मीडिया अपने आप में बुरा नहीं है।
यह एक साधन है - जिससे हम ज्ञान, खबरें, और दुनिया की जानकारी पा सकते हैं।
लेकिन जब यह साधन “आदत” बन जाता है, तब यह व्यक्ति की सोच और चरित्र पर असर डालता है।
आज बच्चे अपनी असली पहचान नहीं, बल्कि डिजिटल पहचान बनाने में लगे हैं।
वे “लाइक” और “फॉलोअर्स” में अपने मूल्य को मापने लगे हैं।
धीरे-धीरे उनकी भावनाएँ मशीनों के पीछे छिपने लगती हैं।
संस्कार देना क्यों ज़रूरी है
संस्कार किसी किताब में नहीं मिलते,
वो तो माता-पिता, दादा-दादी और परिवार के व्यवहार से आते हैं।
अगर घर में प्यार, सम्मान, भक्ति और एकता है,
तो वही बच्चे के अंदर गहराई तक उतरता है।
संस्कार ही वो शक्ति हैं जो बच्चे को सही-गलत का बोध कराती हैं।
अगर वे मजबूत हों, तो कोई भी सोशल मीडिया या बाहरी प्रभाव उसे भटका नहीं सकता।
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असली समस्या: साथ का अभाव
आज की पीढ़ी के पास सब कुछ है - मोबाइल, टीवी, गाड़ियाँ, आधुनिक जीवनशैली -
बस “साथ” नहीं है।
माता-पिता व्यस्त हैं, बच्चे अकेले हैं।
और उस अकेलेपन को भरने आता है - मोबाइल स्क्रीन।
वहीं से शुरू होती है “संस्कारों की दूरी।”
बच्चे को केवल आदेश नहीं, संवाद चाहिए।
वो सुने जाने की उम्मीद रखता है।
अगर उसे यह अपने घर में नहीं मिलता, तो वह इंटरनेट की आवाज़ों में डूब जाता है।
समाधान क्या है?
1. समय दीजिए, स्क्रीन नहीं -
बच्चे को मोबाइल देने से पहले उसे अपनी कहानी सुनाएँ, साथ में खेलें, बातें करें।
2. संस्कृति से जोड़ें -
आरती में साथ बैठें, कथा सुनाएँ, त्योहार का अर्थ बताएं।
3. सीमाएँ तय करें -
मोबाइल के उपयोग के नियम प्यार से समझाएँ, सख्ती से नहीं।
4. स्वयं उदाहरण बनें -
बच्चे वही सीखते हैं जो वो देखते हैं। अगर हम खुद मोबाइल छोड़कर भगवान का नाम लें, तो वे भी ऐसा करेंगे।
5. आध्यात्मिक शिक्षा दें -
सप्ताह में एक दिन घर में धार्मिक चर्चा या ध्यान का समय रखें।
संस्कार कभी मरते नहीं,
वे केवल धूल में छिप जाते हैं।
बस उन्हें थोड़ा प्रेम और ध्यान चाहिए।
अगर माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर बच्चों को सही दिशा दें,
तो सोशल मीडिया भी संस्कारों का साधन बन सकता है।
भविष्य डराने वाला नहीं है,
बस हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि-
“मोबाइल तुम्हारा सेवक है, मालिक नहीं।”
सारांश
आने वाली पीढ़ी का भविष्य हमारे हाथों में है।
अगर हम आज अपने बच्चों के मन में प्रेम, करुणा और ईश्वर-विश्वास का बीज बो देंगे,
तो कल वही पेड़ पूरी दुनिया को छाया देगा।
संस्कारों को केवल सिखाइए नहीं, जीकर दिखाइए -
क्योंकि बच्चे शब्दों से नहीं, उदाहरणों से सीखते हैं।
लेखक का भाव:
संस्कार वह दीप हैं जो समय के हर अंधकार में रोशनी फैलाते हैं।
आइए, मिलकर उस दीप को बुझने न दें -
क्योंकि यही दीप आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करेगा।
FAQs
1. क्या सोशल मीडिया बच्चों के संस्कार छीन रहा है?
उत्तर: पूरी तरह नहीं, लेकिन अगर इसका उपयोग बिना नियंत्रण के किया जाए तो यह बच्चों के मन और सोच दोनों को प्रभावित करता है।
संस्कार कम नहीं होते, बस उनका अभ्यास घट जाता है। इसलिए जरूरी है कि माता-पिता समय सीमित करें और बच्चों को आध्यात्मिकता से जोड़ें।
2. बच्चे सोशल मीडिया से इतना क्यों जुड़ जाते हैं?
उत्तर: क्योंकि उन्हें वहां ध्यान, मनोरंजन और मान्यता (validation) मिलती है।
अगर परिवार और माता-पिता उन्हें वही अपनापन घर पर दें, तो बच्चे बाहर की दुनिया में उसे ढूंढने नहीं जाएंगे।
3. क्या सोशल मीडिया पूरी तरह बंद कर देना चाहिए?
उत्तर: नहीं, क्योंकि सोशल मीडिया ज्ञान और जानकारी का भी साधन है।
समस्या उपयोग में नहीं, दुरुपयोग में है।
अगर सही दिशा और सीमित समय में प्रयोग किया जाए, तो यह लाभकारी हो सकता है।
4. संस्कार सिखाने की शुरुआत कहाँ से करें?
उत्तर: घर से। बच्चे वही सीखते हैं जो वे देखते हैं।
अगर माता-पिता पूजा, आरती, सत्यता और प्रेम का पालन करते हैं, तो बच्चा अपने आप वैसा बनता है।
5. मोबाइल और पढ़ाई के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए?
उत्तर: बच्चों के लिए “स्क्रीन टाइम” तय करें - जैसे दिन में केवल 1–2 घंटे मनोरंजन के लिए।
बाकी समय पढ़ाई, खेलकूद और परिवार के साथ बिताने की आदत डालें।
इससे दिमाग सक्रिय और मन शांत रहेगा।
6. क्या आज के बच्चे संस्कारहीन हो जाएंगे?
उत्तर: नहीं। संस्कार मिटाए नहीं जा सकते, वे केवल कमजोर हो सकते हैं।
अगर माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर सही मार्गदर्शन दें,
तो आज के बच्चे ही कल के आदर्श बन सकते हैं।
7. सोशल मीडिया का सकारात्मक उपयोग कैसे करें?
उत्तर: बच्चों को धार्मिक, शैक्षिक और प्रेरणादायक वीडियो देखने को प्रोत्साहित करें।
उन्हें दिखाएं कि सोशल मीडिया केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सीखने का माध्यम भी हो सकता है।
8. माता-पिता क्या करें जब बच्चा मोबाइल छोड़ने को तैयार न हो?
उत्तर: डांटने की बजाय संवाद करें।
उसे यह महसूस कराएँ कि परिवार में उसका समय और भावनाएँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं।
धैर्य और प्रेम से समझाने पर बच्चा खुद संतुलन सीख लेता है।
9. क्या संस्कार डिजिटल युग में सिखाए जा सकते हैं?
उत्तर: हाँ, बिल्कुल।
ऑनलाइन कथा सुनना, गीता के वीडियो, भक्ति गीत, या नैतिक कहानियाँ सुनाना - ये सब आधुनिक तरीके हैं जिनसे हम संस्कार और तकनीक दोनों को जोड़ सकते हैं।
10. आने वाली पीढ़ी के लिए सबसे जरूरी संदेश क्या है?
उत्तर: तकनीक का उपयोग करो, पर उसके गुलाम मत बनो।
ज्ञान लो, पर संस्कार मत छोड़ो।
मोबाइल रखो, पर माता-पिता और भगवान से दूरी मत बढ़ाओ
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प्रिय पाठकों,आशा करते है कि यह पोस्ट आपको पसंद आयी होगी। इसी के साथ विदा लेते हैं। ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ अगली पोस्ट में फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप अपना ख्याल रखे। हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए।
धन्यवाद🙏
हर हर महादेव 🙏 जय श्री कृष्ण

