जय श्री राधे -कृष्णा
तृणावर्त का उद्धार
भगवान् श्रीकृष्ण सदैव ही षड्-ऐश्वर्यों से ओतप्रोत रहते हैं। ये हैं-पूर्ण धन, बल, यश, ज्ञान, सौन्दर्य तथा वैराग्य। भगवान् विभिन्न पूर्ण शाश्वत अवतारी रूपों में प्रकट होते हैं। बद्ध जीवात्मा को इन अवतारों में भगवान् के दिव्य कार्यकलापों के विषय में सुनने का अवसर प्राप्त होता रहता है।
भगवद्गीता में कहा गया है- जन्म कर्म च मे दिव्यम्। भगवान् की लीलाएँ तथा कार्यकलाप संसारी नहीं हैं, वे भौतिक बोध से परे हैं। किन्तु बद्धजीव इन असाधारण कार्यकलापों के श्रवण से लाभान्वित हो सकता है।
श्रवण एक अवसर है, जो भगवान् का साहचर्य प्रदान करता है और उनके कार्यकलाप के श्रवण का अर्थ है दिव्य चेतना का विकास करना। बद्धजीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति अन्य बद्धजीवों के विषय में उपन्यास, नाटक, कथा आदि के माध्यम से कुछ-न-कुछ श्रवण करने की होती है।
नन्द और वसुदेव का मिलन
अन्यों के विषय में कुछ-न-कुछ श्रवण करने की इस प्रवृत्ति (अभिरुचि) का उपयोग भगवान् की लीलाओं के श्रवण करने में किया जा सकता है। तब मनुष्य तुरन्त दिव्य प्रकृति की ओर विकास कर सकता है। कृष्ण की लीलाएँ न केवल सुन्दर हैं, अपितु वे मन को मोहने वाली हैं।
यदि कोई भगवान् की लीलाओं के श्रवण का लाभ उठाता है, तो प्रकृति की दीर्घकालीन संगति के कारण मन में संचित होने वाली कल्मष-धूलि को तुरन्त ही धोया जा सकता है। भगवान् कृष्ण के दिव्य नाम के श्रवण-मात्र से ही मनुष्य अपने मन के सारे भौतिक कल्मष धो सकता है।
आत्म-साक्षात्कार की विभिन्न विधियाँ हैं, किन्तु जब बद्धजीव इस भक्ति की विधि को, जिसका महत्त्वपूर्ण कार्य श्रवण करना है, अपनाता है तो इसके द्वारा उसका भौतिक कल्मष स्वतः धुल जाता है और उसे अपनी स्वाभाविक स्थिति का बोध हो जाता है।
इस कल्मष के कारण ही यह बद्ध जीवन है और ज्योंही यह कल्पष धुल जाता है त्योंही जीवात्मा का अप्रकट कार्य, अर्थात् भगवान की सेवा करने का कार्य सहज जाग उठता है। परमेश्वर के साथ दिव्य सम्बन्ध स्थापित करने से वह भक्तों के साथ मित्रता करने का अधिकारी बन जाता है।
महाराज परीक्षित ने व्यावहारिक अनुभव से यह निर्दिष्ट किया है कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनने का प्रयास करे। भगवान् अपनी अहैतुकी कृपावश इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। और सामान्य पुरुष की भाँति अपने कार्यकलापों का प्रदर्शन करते हैं।
दुर्भाग्यवश शून्यवादी या नास्तिक लोग कृष्ण को अपने समान एक सामान्य व्यक्ति मानते हैं। और इस तरह वे उनका उपहास करते हैं। भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता में इसकी यह कह कर भर्त्सना की है-अवजानन्ति मां मूढाः। अथार्त मूढ या पाखंडी कृष्ण को सामान्य व्यक्ति या मानव से थोड़ा-बहुत अधिक शक्तिमान मनुष्य मानते हैं।
श्री कृष्ण की पहली वर्षगांठ
दुर्भाग्यवश वे उन्हें श्रीभगवान् के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। कभी-कभी ऐसे भाग्यहीन मनुष्य बिना किसी शास्त्रीय प्रमाण के अपने आपको कृष्ण का अवतार घोषित कर देते हैं। जब कृष्ण कुछ और बड़े हुए, तो वे पलटने लगे, अब वे पीठ के ही बल नहीं लेटे रहते थे।
यशोदा तथा नन्द महाराज ने दूसरा उत्सव अर्थात् कृष्ण की पहली वर्षगाँठ मनाई। उन्होंने कृष्ण जन्मदिवस (जन्माष्टमी) उत्सव का आयोजन किया, जो आज भी वैदिक सिद्धान्तों के अनुयायियों द्वारा मनाया जाता है (भारत में सारे हिन्दू जातिगत भेदभाव छोड़ कर कृष्ण का जन्मदिन मनाते हैं)।
सारे ग्वालों तथा ग्वालिनों को इस हर्ष उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। सुन्दर वाद्यवृन्द बज रहा था जिसे सुन कर एकत्रित लोग आनन्दित हो रहे थे। सारे विद्वान ब्राह्मणों को आमंत्रण दिया गया था और उन सबों ने आकर कृष्ण के मंगल के लिए वैदिक स्तुतियों का उच्चारण किया।
स्तुतियों के उच्चारण तथा वाद्यों के बजते समय यशोदा माता ने कृष्ण को स्नान कराया। यह स्नान-क्रिया अभिषेक कहलाती है और आज भी इसे वृन्दावन के सारे मन्दिरों में जन्माष्टमी दिवस के रूप में सम्पन्न किया जाता है।
इस अवसर पर माता यशोदा ने प्रभूत अन्न राशि का वितरण किया और विद्वान पूज्य ब्राह्मणों को दान में देने के लिए स्वर्णाभूषणों से सज्जित उत्तम गौएँ तैयार की गईं। यशोदा ने स्नान करके सुन्दर वस्त्र धारण किये और वे भली-भाँति नहलाये तथा सज्जित बालक कृष्ण को अपनी गोद में लेकर ब्राह्मणों द्वारा उच्चरित वैदिक स्तुतियाँ सुनने के लिए बैठ गईं।
वैदिक स्तुतियाँ सुनते-सुनते कृष्ण को गहरी नींद लग गई, अत: माता चुपके से जाकर उन्हें बिस्तर पर लेटा आईं। इस शुभ अवसर पर सारे मित्रों, सम्बन्धियों तथा वृन्दावनवासियों का स्वागत करने में व्यस्त रहने के कारण यशोदा जी बालक को दूध पिलाना भूल गईं।
बालक भूख के मारे रो रहा था, किन्तु जन-रव के कारण वे बालक की रोना न सुन पाईं। अतः बालक अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, क्योंकि वह भूखा था और माता उसकी ओर ध्यान नहीं दे रही थीं। अतः वह अपनी टाँगें ऊपर उठाकर चरणकमलों को सामान्य बालक की तरह पटकने लगा।
बालक कृष्ण को एक छकड़े(धीरे चलने वाली गाड़ी ) के नीचे रखा गया था, और जब वे अपने पाँव पटक रहे थे, तो अकस्मात् उनका पाँव छकड़े के पहिए से छू गया जिससे वह छकड़ा चूर-चूर हो गया। इस छकड़े पर अनेक प्रकार के पात्र तथा पीतल तथा अन्य धातुओं की बनी थालियाँ संचित थीं, और वे सब धड़ाम से नीचे गिर गईं।
छकड़े का पहिया धुरे से निकल गया और पहिये के सारे आरे टूटकर इधर-उधर छितर गये। माता यशोदा तथा समस्त गोपियाँ एवं नन्द महाराज तथा सारे ग्वाले आश्चर्यचकित थे कि यह छकड़ा किस तरह स्वतः टूट गया। इस पावन उत्सव में समागत सारे स्त्री तथा पुरुष छकड़े के चारों ओर एकत्र हो गये और सुझाव देने लगे कि यह छकड़ा किस तरह टूटा होगा।
किन्तु कोई भी इसका कारण नहीं जान पाया। हाँ, कुछ छोटे-छोटे बच्चों ने, जिन्हें नन्हे कृष्ण के साथ खेलते रहने का काम सौंपा गया था भीड़ को बताया कि पहिए में श्रीकृष्ण का पाँव लग जाने से ऐसा हुआ है।
बालकों ने भीड़ को आश्वस्त किया कि उन्होंने अपनी आँखों से देखा है कि वह सब कैसे हुआ और वे सब इसी पर बल दे रहे थे। कुछ लोग तो ध्यान से छोटे बच्चों के बयान सुन रहे थे, किन्तु दूसरों ने कहा, "आप इन बच्चों के कहने पर कैसे विश्वास कर सकते हैं?"
ग्वाले तथा ग्वालिनें यह जान न पाईं कि सर्वशक्तिमान भगवान् वहाँ बाल-रूप में लेटे हुए थे और वे कुछ भी करने में समर्थ थे। सम्भव तथा असम्भव दोनों ही उनके वश में थे। जब इस तरह विवाद चल रहा था, तो बालक कृष्ण रो पड़े।
माता यशोदा ने बिना प्रतिवाद के बालक को अपनी में उठा लिया और भूत-प्रेत दूर करने के लिए वैदिक स्तुतियों का उच्चारण कराने के लिए विद्वान ब्राह्मणों को बुलवा भेजा। साथ ही वे बच्चे को दूध भी पिलाती रहीं। यदि बालक अपनी माता का दूध ठीक से पीता है, तो यह समझा जाता है कि बच्चे को कोई खतरा नहीं है।
तत्पश्चात् समस्त बलिष्ठ ग्वालों ने टूटे छकड़े को ठीक किया और इधर-उधर बिखरी वस्तुओं को पूर्ववत् रख दिया। फिर ब्राह्मणों ने यज्ञ की अग्नि में घी, दही, कुश तथा जल की आहुतियाँ दीं। उन्होंने बच्चे के मंगल के लिए श्रीभगवान् की पूजा की।
वहाँ पर उपस्थित सारे ब्राह्मण सुपात्र थे क्योंकि वे ईर्ष्याहीन थे; उन्होंने कभी असत्य भाषण नहीं किया था, वे घमंडी नहीं थे, वे सबके सब अहिंसावादी एवं प्रामाणिक थे, अतः ऐसा कोई कारण न था कि उनके आशीर्वाद व्यर्थ जाँए।
सुपात्र ब्राह्मणों के दृढ़ विश्वास के साथ, नन्द महाराज ने अपने पुत्र को गोद में लेकर यजुः तथा साम वेदों से स्तुतियाँ पढ़ीं। विविध ओषधियों से मिश्रित जल के द्वारा उसे स्नान कराया और ब्राह्मणों ने ऋक्,कहा जाता है कि जब तक ब्राह्मण योग्य (पात्र) न हो, तब तक उसे वेदों के मंत्र नहीं पढ़ने चाहिए।
यहाँ पर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे ब्राह्मण समस्त ब्राह्मण-लक्षणों से सम्पन्न थे। नन्द महाराज को भी उन पर पूर्ण श्रद्धा थी। फलतः उन्हें वैदिक मंत्रोच्चार द्वारा अनुष्ठान करने की अनुमति प्रदान की गई। यद्यपि विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है, किन्तु सारे मंत्रों का उच्चारण सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ही होना चाहिए।
चूँकि इस कलि-काल में ऐसे सुपात्र ब्राह्मण उपलब्ध नहीं हैं, अतः समस्त वैदिक यज्ञ-अनुष्ठान वर्जित हैं। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस युग के लिए केवल एक प्रकार के यज्ञ की संस्तुति की है और वह है संकीर्तन यज्ञ अर्थात् हरे कृष्ण महामंत्र का जाप।
जब ब्राह्मणों ने वैदिक स्तुतियों का उच्चारण किया और दूसरी बार विधि-विधान सम्पन्न कराया, तो नन्द महाराज ने पुनः उन्हें प्रभूत अन्न तथा गौएँ दान में दीं। दान दी गई सारी गौएँ सुनहरे गोटों वाले वस्त्रों से आभूषित थीं, उनके खुर चाँदी के पत्रों से मढ़े थे,
उनके सींग सुनहरे छल्लों से सजाये गये थे और उनके गलों में फूलों के हार पड़े थे। उन्होंने अपने सुन्दर पुत्र के कल्याणार्थ अनेक गौवों का दान किया और बदले में ब्राह्मणों ने हार्दिक आशीर्वाद दिया। ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त ये अशीर्वाद कभी निष्फल नहीं हो सकते थे।
कृष्ण और तृणावर्त की कथा
एक दिन इस उत्सव के तुरन्त बाद जब माता यशोदा बालक को अपनी गोद में लेकर दुलार रही थीं, तो बालक बहुत भारी लगने लगा, और वे उसे उठाने में असमर्थ अनुभव करने लगी। अतः उन्होंने इच्छा न होते हुए भी उसे जमीन पर बिठा दिया। थोड़ी देर बाद वे गृह-कार्य में व्यस्त हो गईं।
उसी समय कंस का एक भृत्य, जिसका नाम तृणावर्त था, कंस के आदेशानुसार बवंडर के रूप में वहाँ प्रकट हुआ। उसने बालक को अपने कंधे पर चढ़ा लिया और सारे वृन्दावन के ऊपर एक भारी अंधड़ उत्पन्न कर दिया। फलस्वरूप सारे लोगों की आँखें धूल से भर गईं और सम्पूर्ण वृन्दावन क्षेत्र इतने गहन अंधकार से पूर्ण हो गया कि कोई किसी को देख नहीं सकता था।
इस महान् उत्पात के समय माता यशोदा को अपना बच्चा नहीं दिखाई पड़ा, क्योंकि उसे तो बवंडर उड़ा ले गया था, अतः वे करुणा करके रोने लगीं। वे पृथ्वी पर उसी प्रकार गिर पड़ीं जिस प्रकार बछड़ा खो जाने पर गाय बेहोश हो जाती है।
जब यशोदा इस तरह विलाप कर रही थीं, तो सारी ग्वालिने तुरन्त वहाँ आ गई और बालक की खोज करने लगीं, किन्तु वे बालक को नहीं पा सकीं, अतः निराश हो उठीं। तृणावर्त दानव बालक कृष्ण को कंधे पर उठाकर आकाश में बहुत ऊपर चला गया था, किन्तु बालक ने अपना भार इतना बढ़ा लिया कि सहसा वह और ऊपर नहीं जा सका, अतः दानव को अपना उत्पात बन्द करना पड़ा।
बालक कृष्ण ने अपने को इतना भारी बना लिया कि दानव अपनी गर्दन पकड़ कर नीचे बैठने लगा। तृणावर्त को लग रहा था कि यह बालक मानो विशाल पर्वत हो। वह उसके चंगुल से निकलने का प्रयास करने लगा, किन्तु ऐसा नहीं कर पाया।
उसके नेत्र-गोलक बाहर निकल आये। वह चीत्कार करता हुआ वृन्दावन की भूमि पर गिर कर मर गया। यह असुर शिवजी के बाणों से बिंधा त्रिपुरासुर के ही समान गिर पड़ा। वह पथरीली भूमि पर गिरा था, अत: उसके अंग-प्रत्यंग क्षत-विक्षत हो गये। उसका शरीर समस्त वृन्दावनवासियों को दिखाई देने लगा।
पूतना वध के समय भगवान् ने अपनी आँखे क्यों बंद की /कृष्ण द्वारा पूतना का वध
जब गोपियों ने असुर को मरा हुआ तथा बालक कृष्ण को उसके शरीर के ऊपर प्रसन्नतापूर्वक खेलते देखा, तो उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक उसे उठा लिया। सारे गोप तथा गोपिकाएँ अपने प्राणप्रिय कृष्ण को पाकर अत्यन्त प्रमुदित हुई।
उस समय वे परस्पर बातें करने लगीं कि यह कितने आश्चर्य की बात है कि यह असुर इस बालक को खा जाने के लिए लेकर भागा था, किन्तु ऐसा नहीं कर पाया। उल्टे वह गिर कर मर गया। उनमें से कुछ ने इस परिस्थिति के समर्थन में कहा: "यह उचित ही हुआ क्योंकि जो पापी होते हैं, वे अपने पाप-फल से मर जाते हैं।
यह बालक पवित्र है, इसलिए सभी प्रकार की विपदाओं से बच सका है। हमने भी पूर्वजन्म में अवश्य ही महान् यज्ञ किये होंगे, भगवान् की पूजा की होगी, प्रभूत सम्पत्ति का दान दिया होगा और जनता का उपकार किया होगा। ऐसे पुण्य कार्यों के फलस्वरूप ही यह बालक इस संकट से बच सका है। वहाँ पर समवेत गोपियाँ परस्पर कहने लगीं पूर्वजन्म में हमने कैसी तपस्या की होगी?
हमने अवश्य ही भगवान् की पूजा की होगी, विविध प्रकार के यज्ञ किये होंगे, दान दिये होंगे और वट वृक्ष लगाने तथा कुएँ खुदाने जैसे जन-कल्याणकारी कार्य सम्पन्न किये होंगे, जिन पुण्यकार्यों के परिणामस्वरूप हमें हमारा बालक वापस प्राप्त हो सका है, अन्यथा वह मर ही चका था।
अब वह अपने परिजनों को जीवनदान देने के लिए लौट आया है। ऐसी विचित्र घटनाएँ देख-देख कर नन्द महाराज को वसुदेव के वचन पुनःपुन: याद आने लगे।
यशोदा जी ने स्तन-पान कराते समय कृष्ण के मुँह में क्या देखा ?
इस घटना के बाद एक बार जब यशोदा अपने पुत्र को प्रेमपूर्वक स्तन-पान करा रही थी और दुलार रही थीं, तो उनके स्तनों से दुग्ध की धारा बह निकली और उन्होंने अपनी अँगुलियों से बालक का मुख खोला, तो अचानक उन्हें उस मुख के भीतर सारा ब्रह्माण्ड दिखाई पड़ा।
उन्होंने कृष्ण के मुख के भीतर नक्षत्रों सहित पूरा आकाश, चारों दिशाओं में तारे, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, जंगल तथा सारे जड़-जंगम प्राणी देखे।
यह देखकर माता यशोदा का दिल धड़कने लगा और वे अपने आप बुदबुदाईं, "कितना विचित्र है यह!” वे कुछ भी व्यक्त न कर पाईं। बस, उन्होंने अपनी आँखें मूंद लीं।
वे विचित्र भावों में लीन हो गईं। कृष्ण द्वारा अपनी माता की गोद में लेटे रहकर अपने विराट रूप का प्रदर्शन यह सिद्ध करता है कि भगवान् सदैव भगवान् होते हैं, चाहे वे माँ की गोद में लेटे हों या कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में सारथी बने हों।
इससे निर्विशेषवादियों का यह मनगढंत विचार कि मनुष्य ध्यान या किसी कृत्रिम कर्म द्वारा भगवान् बन सकता है झूठा सिद्ध हो जाता है। ईश्वर चाहे जिस भी दशा में रहें, ईश्वर रहते हैं और जीव सदा परमेश्वर के अंशरूप हैं। वे कभी भी भगवान् की अकल्पनीय अलौकिक शक्ति की बराबरी नहीं कर सकते।
प्रिय पाठकों !इस पोस्ट में आप ने जाना भगवान् श्री कृष्ण जी ने असुर प्राणावर्त का उद्धार किस प्रकार किया। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी ,तब तक के लिए जय श्री राधे -कृष्णा। अगली पोस्ट है -विराट रूप का दर्शन
धन्यवाद